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________________ जैसे राजनीतिक स्वतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध या मौलिक अधिकार है, वैसे ही स्वधर्मरक्षा की स्वतंत्रता भी मनुष्य का मौलिक अधिकार है। अतः सल्लेखना धर्मरक्षा का प्रयास होने के कारण जैनधर्मावलम्बियों का मौलिक अधिकार है। जैसे किसी मांसाहारी को कानून के द्वारा शाकाहार के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, वैसे ही किसी शाकाहारी को मांसाहार के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, भले ही इससे उसके प्राण चले जायँ । यदि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में किसी नागरिक को स्वधर्मविरुद्ध आहार - औषधि ग्रहण करने के लिए अथवा स्वधर्मविरुद्ध जीवनपद्धति अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है, तो न तो वह लोकतंत्र कहला सकता है, न धर्मनिरपेक्ष । अतः बाह्य कारणों से प्राणसंकट उपस्थित हो जाने पर स्वधर्मविरुद्ध आहार - औषधि एवं स्वधर्मविरुद्ध जीवनपद्धति को स्वीकार न करते हुए अहिंसाधर्म एवं न्यायामार्ग की रक्षा के लिए, उपस्थित हुए प्राणसंकट को स्वीकार कर लेने का अधिकार अर्थात् सल्लेखना का अधिकार मनुष्य को अपने धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक राज्य के संविधान से प्राप्त 1 प्रसन्नता होने पर ही सल्लेखना संभव जैसा कि पूर्व में कहा गया है, मृत्यु का कारण उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध होकर धर्मविरुद्ध एवं अनैतिक उपायों से प्राणरक्षा का प्रयत्न न करना सल्लेखना है । यह कार्य ज्ञानी और धर्म में आस्थावान् मनुष्य ही कर सकता है, क्योंकि उसे ही सल्लेखना - ग्रहण में प्रसन्नता हो सकती है। प्रसन्नता के अभाव में सल्लेखना बलपूर्वक ग्रहण नहीं करायी जा सकती। प्रसन्नता होने पर मनुष्य स्वयं ही ग्रहण करता है। इसका स्पष्टीकरण पूज्यपाद स्वामी ने निम्नलिखित शब्दों में किया है- यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते । सत्यां हि प्रीतौ स्वयमेव करोति ।" (सर्वार्थसिद्धि ७/२२) । 44 हिन्दूधर्म में संन्यासमरण : सल्लेखनामरण जैनधर्म में विहित सल्लेखनामरण के समान हिन्दूधर्म में भी संन्यासमरण का विधान किया गया है। संन्यासमरण के प्रकरण में 'संन्यास' का अर्थ अनशन अर्थात् आहारत्याग है । यथा- "संन्यासवत्यनशने पुमान् प्रायः " इत्यमरः (भट्टिकाव्य-टीका ७/७३ पं० शेषराज शर्मा शास्त्री / चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस बाराणसी / १९९८ ई.) । और 'प्राय' का अर्थ है अनशन, मरण, तुल्य और बाहुल्य- "प्रायश्चानशने मृत्यौ तुल्यबाहुल्ययोरपि " इति विश्वः । 'संन्यास' (आहारत्याग) को 'प्रायोपवेशिका' भी कहा गया है। यथा उवाच मारुतिर्वृद्धे संन्यासिन्यत्र वानरान् । अहं पर्यायसम्प्राप्तां कुर्वे प्रायोपवेशिकाम् ॥ ७/७६ ॥ भट्टिकाव्य । अनुवाद- हनुमान् जी ने वानरों से कहा- "वृद्ध जाम्बवान् के संन्यासी हो जाने पर ( अनशन आरंभ कर देने पर) मैं भी इस पर्वत पर क्रमप्राप्त प्रायोपवेशिका ( अनशन) आरंभ करता हूँ । "संन्यासिनि = अनशनवति", "प्रायोवशिकाम् =अनशनम् " ( पं० शेषराज शर्मा शास्त्रीकृत टीका / भट्टिकाव्य ७/७६) । यह अनशन (आहारत्याग) मरण के लिए किया जाता है और जिसका इस तरह मरण होता है, उसका दाहसंस्कार नहीं किया जाता - " अत्र प्रायोपवेशतो मरणे दाहसंस्काराऽभावादिति भावः । " ( पं० शेषराज शर्मा शास्त्रीकृत टीका/भट्टिकाव्य ७/७८) । अनशन द्वारा मरण को 'प्रायोपासना' शब्द से भी अभिहित किया गया है- "प्रायोपासनया = मरणानशनाऽनुष्ठानेन।” (वही/भट्टिकाव्य ७ / ७३) । हिन्दूपुराणों में आहारत्याग द्वारा किये जानेवाले मरण के लिए 'संन्यासमरण' के अतिरिक्त 'प्राय', प्रायोपवेश, प्रायोपवेशन, प्रायोपवेशिका, प्रायोपवेशनिका, प्रायोपगमन एवं प्रायोपेत शब्द भी प्रयुक्त हैं । ( देखिए, वामन शिवराम आप्टे - संस्कृत-हिन्दी-कोश, 'प्राय') । सर एम० मोनियर विलिअम्स ने संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी में इन शब्दों के अर्थ का प्रतिपादन इस प्रकार किया है Jain Education International 5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524311
Book TitleJinabhashita 2006 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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