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धर्म और न्याय की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण बलिदान है, आत्महत्या नहीं ___यदि कहा जाय कि मृत्यु का कारण उपस्थित होने पर जान की रक्षा जैसे भी बने वैसे की जाय, अन्यथा जो मृत्यु होगी, वह आत्महत्या कहलायेगी, तो देश की आजादी के लिए अँगरेजों की तोपों और बन्दूकों के सामने खड़े होकर अपनी जान दे देनेवाले शहीदों की मौत आत्महत्या कहलायेगी, बलिदान नहीं। सरदार भगतसिंह का फाँसी पर चढ़ जाना और चन्द्रशेखर आजाद का अंगरेजों की पकड़ से बचने के लिए अपने को गोली मार लेना भी आत्मघात की परिभाषा में आयेगा, क्योंकि ये अँगरेजों के सामने घुटने टेककर आत्मरक्षा कर सकते थे। किन्तु इनके द्वारा मौत को गले
गाये जाने के कदम को संसार के किसी भी व्यक्ति ने आत्महत्या नहीं कहा, सभी ने बलिदान कहा है। इसी प्रकार देशद्रोह के लिए तैयार न होनेवाले किसी सैनिक या नागरिक को देश के शत्रु मार डालते हैं, अपने शीलभंग का विरोध करनेवाली किसी स्त्री का दुष्ट लोग गला घोंट देते हैं, किसी मनुष्य या पशु की हत्या से इनकार करनेवाले की हत्या कर दी जाती है, अपना धर्म छोड़ने या बदलने के लिए तैयार न होनेवाले को मौत के घाट उतार दिया जाता है, तो स्वधर्म की रक्षा के लिए इन लोगों का मृत्यु को वरण कर लेना क्या आत्महत्या कहा जा सकता है? इसी प्रकार किसी अहिंसाव्रतधारी मनुष्य को ऐसा रोग हो जाय, जो किसी प्राणी के अंगों से बनी दवा से ही दूर हो सकता हो, किन्तु वह अपने धर्म की रक्षा के लिए उस मांसमय औषधि का सेवन न करे और रोग से उसकी मृत्यु हो जाय, तो क्या उसे आत्महत्या कहा जायेगा? अथवा किसी शाकाहारव्रतधारी मनुष्य को कोई डाकू या आतंकवादी पकड़ कर ले जाय और उसे मांस-मद्य और नशीली दवाओं के सेवन पर मजबर करे. अन्यथा मार डालने की धमकी दे. तो उसका मांसादि का सेवन न कर डाकू या आतंकवादी के हाथों मर जाना क्या आत्मघात की परिभाषा में आयेगा? अथवा कभी भयंकर अकाल पड़ने से भक्ष्य पदार्थों का अभाव हो जाय तथा मनुष्य ऐसे पदार्थों का भक्षण न करे, जिससे उसका धर्म नष्ट होता हो या शरीर के अपंग होने का डर हो, तब यदि वह भूख से मर जाता है, तो क्या उसे आत्महत्या कहेंगे? दुनिया में ऐसी कोई भी डिक्शनरी नहीं है, जिसमें इन्हें आत्महत्या कहा गया हो, सर्वत्र इन्हें बलिदान शब्द से ही परिभाषित किया गया है। संसार के किसी भी धर्म या कानून में मौत से डरकर प्राण बचाने के लिए देश की आजादी की लड़ाई से विमुख हो जाने को, देशद्रोह के लिए तैयार हो जाने को, किसी स्त्री का अपना शीलभंग स्वीकार कर लेने को अथवा अहिंसाव्रतधारी या शाकाहारधर्मावलम्बी के मांसाहारी हो जाने को जायज नहीं ठहराया जा सकता, अपितु देशरक्षा और धर्मरक्षा के लिए देश के शत्रुओं, बलात्कारियों, डाकुओं, आतंकवादियों, अकाल या रोग के हाथों मारे जाने को ही उचित ठहराया जा सकता है। इसलिए धर्म और कानून की नजरों में भी ऐसी मृत्यु बलिदान की ही परिभाषा में आ सकती है, आत्महत्या की परिभाषा में नहीं। सुप्रसिद्ध भारतीय मनीषी भर्तृहरि ने कहा है
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छति वा यथेष्टम्। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥ अर्थात् अपने को नीतिनिपुण समझने वाले लोग हमारे न्यायसंगत आचरण कि निन्दा करें अथवा प्रशंसा, उससे हमें आर्थिक लाभ हो या हानि अथवा हम तुरन्त मरण को प्राप्त हो जायँ या सैकड़ों वर्षों तक जियें, न्यायशील पुरुष न्यायमार्ग का परित्याग नहीं करते।
इस सूक्ति में भर्तृहरि ने धर्म और न्याय की रक्षा के लिए अपने प्राणों का परित्याग कर देने को उत्कृष्ट और अनुकरणीय आचरण कहा है, आत्महत्या नहीं।
जैसे गरीबी के कारण भुखमरी से अर्थात् भोजन न मिलने से होनेवाली मृत्यु आत्महत्या नहीं कहला सकती, वैसे ही आततायियों द्वारा किये जानेवाले उपसर्ग से अथवा अकाल पड़ने से अथवा अन्य किसी परिस्थिति से मुनि को शुद्ध भोजन न मिले, तो भोजन के अभाव में होनेवाली उनकी मृत्यु को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता।
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