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________________ उस मार्ग से न आकर, प्रासुक मार्ग से आये, उनका महाराज | जिसे भगवान् आदिनाथ ने पंचमकाल में 'धर्मविरोधी' कहा भरत ने उक्त प्रकार सम्मान किया अर्थात् जिसके प्रतिमाएँ थीं, | था। अर्थात् यह परंपरा गलत प्रारंभ हो गई थी। उसको उतनी लड़वाला यज्ञोपवीत पहनाया। अर्थात् यह आज कुछ श्रावक एवं साधुगण इस प्रकार कहने लगे यज्ञोपवीत इस बात का चिह्न माना गया कि किस व्यक्ति की हैं कि बिना यज्ञोपवीत पहिने, पूजा या आहार दान देने का कितनी प्रतिमाएँ हैं । महाराज भरत ने भगवान् आदिनाथ के | अधिकारी नहीं है। जबकि ऐसा कहना, आगम के अनुसार समक्ष अपने कार्य को इस प्रकार निवेदित किया था - बिलकुल उचित नहीं है। आजकल यज्ञोपवीत की परंपरा का एकाद्येकादशान्तानि दत्तान्येभ्यो मया विभो। कैसा मजाक बन रहा है, इसका एक सत्य प्रमाण इस प्रकार व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमिविभागतः॥ आदि पुराण 41-31॥ सांगानेर के मंदिर में 4 मुनियों का संघ पधारा था। अर्थ- हे विभो, मैंने इन्हें 11 प्रतिमाओं के विभाग से श्रमण संस्कृति संस्थान ने भी चौका लगाया। मैं स्वयं तथा व्रतों के चिह्नस्वरूप एक से लेकर ग्यारह यज्ञोपवीत दिये हैं। कुछ छात्र पड़गाहन को खड़े हुए। सबसे बड़े महाराज को अपने इस कार्य को महाराज भरत कैसा समझते थे।। हमने पड़गाह लिया। चरणप्रक्षाल एवं पूजन के उपरांत आहार इसके संबंध में - प्रारंभ करने से पूर्व महाराज ने मुझसे इशारे से यज्ञोपवीत विश्वस्य धर्म सर्गस्य त्वयि साक्षात् प्रणेतरि। के लिये पूछा। मैंने स्पष्ट मना कर दिया और उनके इशारे स्थिते मयातिवालिश्यादिदमाचरितं विभो ॥41-32॥ के अनुसार अलग खड़ा हो गया। इतने में एक छात्र नीचे एक दूकान से एक यज्ञोपवीत खरीद लाया और पहनकर अर्थ - हे प्रभो, समस्त धर्मरूपी सृष्टि को साक्षात् आहार देने लगा। महाराज ने आहार ले लिया। महाराज के उत्पन्न करनेवाले आपके विद्यमान रहते हुए भी मैंने अपनी सामने ही उसी यज्ञोपवीत को अन्य 7-8 छात्रों ने क्रमसे अपनेबड़ी मूर्खता से यह काम किया है। अपने गले में डालकर आहार दे दिया और वे महाराज सब इस यज्ञोपवीत की परंपरा को प्रारंभ करने के संबंध में, | कुछ देखते हुए भी सब छात्रों से आहार लेते रहे। मैं सोचता भगवान् आदिनाथ ने इस प्रकार कहा था - रहा कि यह सब क्या नाटक हो रहा है? पापसूत्रधराः धूर्ता प्राणिमारणतत्पराः। कुछ लोग शास्त्रों में आये हुए 'उपनयन' शब्द को वय॑धुगे प्रवय॑न्ति सन्मार्गपरिपंथिनः॥41-53 | यज्ञोपवीत का रूप मानते हैं, जबकि आचार्य ज्ञानसागर जी अर्थ- पाप का समर्थन करने वाले, शास्त्र को जाननेवाले | महाराज के अनुसार उपनयन का अर्थ 'व्याकरणादिअथवा पाप के चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीत को धारण करनेवाले | विद्याध्ययनस्योप समीपे नयनम् उपनयनम्' । अर्थात् व्याकारण और प्राणियों को मारने में सदा तत्पर रहने वाले, ये धूर्त ब्राह्मण, | आदि शास्त्र पढ़ना प्रारंभ करने को उपनयन कहते हैं। आगामी युग अर्थात् पंचमकाल में समीचीन मार्ग के विरोधी उपर्युक्त सभी प्रमाणों के अनुसार जैन धर्म में यज्ञोपवीत हो जायेंगे। का कोई महत्त्व नहीं है। किसी भी आगमग्रंथ में ऐसा नहीं लिखा उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि किस व्रती | कि इसको नहीं पहननेवाला पूजा या आहारदानका अधिकारी ने कितनी प्रतिमा धारण कर रखी हैं. इसकी स्पष्टता के लिये | नहीं है। प्रतिमाधारी श्रावक यदि चाहे तो भले ही पहन ले, उतनी लड का यज्ञोपवीत पहिनाना, भरत ने प्रारंभ किया था. | पर अव्रतियों को तो पहनना, आगमसम्मत नहीं है। भूलसुधार 'जिनभाषित' अगस्त 2006 के जिज्ञासा-समाधान नं. 03 में उत्तरपुराण पृष्ठ 139-140 का अर्थ इस प्रकार लिखा था- "धरणेन्द्र ने भगवान् को सब ओर से घेरकर अपनी फणाओं के ऊपर उठा लिया।" इसके स्थान पर "धरणेन्द्र भगवान् को फणाओं के समूह से आवृत कर खड़ा हो गया" यह पढ़ा जाय। भूल के लिए खेद है। रतनलाल बैनाड़ा 30 नवम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524311
Book TitleJinabhashita 2006 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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