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________________ 3. औदारिक काययोग - केवली भगवान् का शरीर औदारिक शरीर है। अतः औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीवप्रदेशों में परिस्पंद का कारणभूत जो योग होता वह औदारिक काययोग है । (श्री धवला पु. 1/ पृ. 289, 290) I 4. औदारिक मिश्र काययोग - केवली भगवान् जब कपाट समुद्घात करते हैं, तब औदारिक मिश्रकाययोग होता है। 5. कार्मण काययोग - केवली भगवान् जब प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करते हैं, तब कार्मण काययोग होता है । (श्री धवला पु. 1/ पृ. 298) इस प्रकार केवली के विभिन्न अवस्थाओं में सात प्रकार के योग पाये जाते हैं। जिज्ञासा - क्या अनंतानुबंधी की विसंयोजना बिना भी, उपशम श्रेणी आरोहण हो सकता है? समाधान इस संबंध में निम्न आगम प्रमाण विचारणीय हैं - - 1. पंचसंग्रह (प्रा.) 910 के वें अनुसार 11 'गुणस्थान में 146 प्रकृतियों का सत्त्व बताया गया है, अर्थात् 148 प्रकृतियों में से नरक आयु और तिर्यञ्च आयु को छोड़कर, 146 प्रकृतियाँ सत्ता में रह सकती हैं। इसके अनुसार अनंतानुबंधी की विसंयोजना के बिना उपशम श्रेणी संभव है । 2. श्री राजवार्तिक अ. 2/3 की टीका में इस प्रकार कहा है- अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन क्रोध मान माया लोभ ये 16 कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकद ये 9 नोकषाय, मिथ्यात्व सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति ये तीन दर्शनमोह, इसप्रकार 28 मोहनीय कर्म के भेदों के उपशमन से आत्म परिणामों की जो निर्मलता होती है, उसको औपशमिक चारित्र कहते हैं । इस आगम प्रमाण के अनुसार भी 11वें गुणस्थान में अनंतानुबंधी की सत्ता सिद्ध होती है। उपर्युक्त दोनों प्रमाणों के अनुसार, यह स्पष्ट है कि अनंतानुबंधी की विसंयोजना बिना भी उपशम श्रेणी आरोहण हो सकता है। जिज्ञासा क्या शूद्र व्यक्ति मंदिर जी में आकर जिनबिंब दर्शन कर सकता है ? समाधान- शूद्रों के दो भेद कहे गये हैं - Jain Education International 1. स्पृश्य शूद्र - ये वे शूद्र हैं, जिनसे छू जाने पर भी हम को स्नान करना आवश्यक नहीं होता। जैसे - दर्जी, बढ़ई, सुनार आदि । 2. अस्पृश्य शूद्र - ये वे शूद्र हैं, जिनसे छू जाने पर हमको स्नान करना आवश्यक होता है। जैसे- मेहतर, चांडाल, दाई, डोम आदि । उपर्युक्त में से स्पृश्य शूद्र तो मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं, दर्शन तथा प्रवचन श्रवण आदि कर सकते हैं । परन्तु अस्पृश्य शूद्र मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। चा.च. आचार्य शांतिसागर जी महाराज के अनुसार इन अस्पृश्य शूद्रों को मंदिर प्रवेश नहीं करके, मानस्तंभ की प्रतिमाओं का दर्शन करना चाहिए । जिज्ञासा आजकल कुछ साधु बिना यज्ञोपवीत पहिने व्यक्ति से आहार नहीं लेते हैं। क्या यज्ञोपवीत पहिने हुए व्यक्ति ही पूजा तथा आहार देने के अधिकारी हैं? समाधान - सर्वप्रथम हमको यज्ञोपवीत क्या है, इस पर विचार करना योग्य है। यदि हम शास्त्रों में इसके संबंध में जानकारी लेते हैं, तो द्रव्यानुयोग, करणानुयोग में तो इसका वर्णन है ही नहीं, चरणानुयोग के मूलाचारादि ग्रंथ तथा रत्नकरंड श्रावकाचार आदि किसी भी ग्रंथ में इसका समर्थन नहीं पाया जाता। मात्र प्रथमानुयोग के पद्मपुराण एवं महापुराण में इसका प्रसंग पाया जाता है। इसका प्रारंभ कब से हुआ, इस संबंध में आदि पुराण में इस प्रकार कहा है तेषां कृतानि चिह्नानि, सूत्रैः पद्माह्वयान्निधेः । उपात्तैर्ब्रह्मसूत्राह्वैरेकाद्येकादशान्तकैः ॥ 38/21 ॥ भूमि कृताद्भेदात् क्लृप्तयज्ञोपवीतिनाम् । सत्कारः क्रियते स्मैषामव्रताश्च बहिः कृताः ॥ 22 ॥ अर्थ - पद्म नाम की निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर 11 तक की संख्या वाले ब्रह्मसूत्र नामक सूत्र से (व्रतसूत्र से ) उन सबके चिह्न किये । प्रतिमाओं के द्वारा किये हुए भेद के अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किये हैं, ऐसे इन सबका भरत ने सत्कार किया तथा जो व्रती नहीं थे, उन्हें वैसे ही जाने दिया । उपर्युक्त संदर्भ का प्रकरण यह है कि महाराज भरत व्रतियों का सम्मान करने के लिये, उनकी परीक्षा करने के लिये, मुख्य गृहस्थों को बुलाया। मार्ग में हरे-हरे अंकुर पुष्प, फल आदि भरवा दिये थे। तब जो हिंसा से बचने के लिये, नवम्बर 2006 जिनभाषित 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524311
Book TitleJinabhashita 2006 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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