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हिन्दू-संस्कृति का आविर्भाव आर्य और आर्येतर संस्कृतियों के मिश्रण से हुआ तथा जिसे हम वैदिक संस्कृति कहते हैं, वह वैदिक और प्राग्वैदिक संस्कृतियों के मिलन से उत्पन्न हुई थी, यह अनुमान कई प्रकार की युक्तियों पर आधारित है। भारतीय संस्कृति के विवेचन में हमारे सामने कुछ ऐसी शंकाएँ खड़ी होती हैं, जिनका समाधान न तो इस स्थापना से हो सकता है कि हिन्दू-संस्कृति सोलह आने आर्यों का निर्माण है, न इस स्थापना से कि वैदिक संस्कृति केवल प्राग्वैदिक संस्कृति का विकास मात्र है। डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने ऐसी कई शंकाओं का उल्लेख अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति का विकास : वैदिक धारा' में किया है।
जैन संस्कृति वेदपूर्व है
पाणिनि का समय हम लोग ई० पू० 7 वीं सदी मानते हैं । पाश्चात्यों के मतानुसार उनका काल ई० पू0 5वीं सदी से इधर नहीं माना जा सकता। पाणिनि ने श्रमण-ब्राह्मण-संघर्ष का उल्लेख 'शाश्वतिक विरोध' के उदाहरण के रूप में किया है। अवश्य ही शाश्वत शब्द सौ-दो सौ वर्षों का अर्थ नहीं देता, वह इससे बहुत अधिक काल का संकेत करता है । अतएव, यह मानना युक्ति युक्त है कि श्रमण संस्था भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व विद्यमान थी और ब्राह्मण इस संस्था को हेय समझते थे। श्रमणों और ब्राह्मणों के बीच सर्प-नकुल- सम्बन्ध का उल्लेख बुद्धोत्तर साहित्य में बहुत अधिक हुआ है, किन्तु, पाणिनि के उल्लेख से यह स्पष्ट भासित होता है कि श्रमणब्राह्मण-संघर्ष बौद्ध मत से कहीं प्राचीन है।
पौराणिक हिन्दू-धर्म निगम और आगम, दोनों पर आधारित माना जाता है। निगम वैदिक विधान है। आगम प्राग्वैदिक काल से आती हुई वैदिकेतर धार्मिक परम्परा का वाचक है । पुराण और पौराणिक धर्म उतने नवीन नहीं हैं, जितना नवीन उन्हें पश्चिम के विद्वानों ने सिद्ध किया है।" यह कहना सम्भव है कि इतिहास-पुराणों का आरम्भ अथर्ववेद के काल में हुआ। अथर्ववेद में कहा गया है कि ऋग्वेद, सामवेद, पुराणों के साथ यजुर्वेद तथा छन्द ब्रह्मदेव से उत्पन्न हुए (11/7/24)। शतपथ-ब्राह्मण के (11/5/7/9) ब्रह्म - यज्ञ में इतिहास तथा पुराणों के पठन का फल बतलाया गया है और कहा गया है कि अश्वमेध में (13/4/3/13) पुराण तथा वेद का पठन किया जाय।” (वैदिक संस्कृति का विकास : लक्ष्मण शास्त्री जोशी) ।
6 अक्टूबर 2006 जिनभाषित
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स्व. श्री रामधारी सिंह 'दिनकर'
पुराणों का उल्लेख धर्मसूत्रों में भी है तथा मनुस्मृति, विष्णुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति एवं ऋग्विधान में भी । रामायण और महाभारत तो पुराणों के नाम कई बार लेते हैं। इन सारे प्रमाणों से यह अनुमान अत्यधिक सुदृढ़ हो जाता है कि पुराणों की परम्परा वेदों की परम्परा से कम प्राचीन नहीं है.
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डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने यह भी अनुमान लगाया है कि भारतीय संस्कृति में जो कई परस्पर-विरोधी 'युग्म' हैं, उनका भी कारण यही है कि यह संस्कृति, आरम्भ से ही, सामासिक रही है। उदाहरणार्थ, भारतीय समाज में एक द्वन्द्व तो कर्म और संन्यास को लेकर है, दूसरा प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच तथा तीसरा स्वर्ग और नरक की कल्पनाओं को लेकर। यह विषय, सचमुच, विचारणीय है । अत्यन्त प्राचीन काल से भारत की मानसिकता दो धाराओं में विभक्त रही है। एक धारा कहती है कि जीवन सत्य है और हमारा कर्त्तव्य यह है कि हम बाधाओं पर विजय प्राप्त करके जीवन में जय लाभ करें एवं मानवबन्धुओं का उपकार करते हुए यज्ञादि से देवताओं को भी प्रसन्न करें, जिससे हम इस और उस, दोनों लोकों में सुख और आनन्द प्राप्त कर सकें। किन्तु, दूसरी धारा की शिक्षा यह है कि जीवन नाशवान् है । हम जो भी करें, किन्तु, हमें रोग और शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, न मृत्यु से हम भाग सकते हैं। हमारे आनन्द की स्थिति वह थी, जब हमने जन्म नहीं लिया था । जन्म के कारण ही हम वासनाओं की जंजीर में पड़े हैं। अतएव, हमारा श्रेष्ठ धर्म यह है कि उन सुखों को पीठ दे दें, जो हमें ललचा कर संसार में बाँधते हैं। इस धारा के अनुसार मनुष्य को घर-बार छोड़कर संन्यास ले लेना चाहिये और देह - दंडनपूर्वक वह मार्ग पकड़ना चाहिये, जिससे आवागमन छूट जाय ।
अनुमान यह है कि कर्म और संन्यास में से कर्म, तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति में से प्रवृत्ति के सिद्धान्त, प्रमुख रूप से, वैदिक हैं तथा संन्यास और निवृत्ति के सिद्धान्त, अधिकांश प्राग्वैदिक मान्यताओं से पुष्ट हुए होंगे। किन्तु, आश्चर्य की बात है कि भारतीय अध्यात्मशास्त्र और दर्शन पर जितना प्रभाव संन्यास और निवृत्ति का है, उतना प्रभाव कर्म और प्रवृत्ति के सिद्धान्तों का नहीं है । अथवा आश्चर्य की इसमें कोई बात नहीं है। ऋग्वेद के आधार पर यह मानना युक्तिसंगत है कि आर्य पराक्रमी मनुष्य थे । पराक्रमी मनुष्य संन्यास की अपेक्षा कर्म को अधिक महत्त्व देता है, दुःखों से भाग खड़ा होने के बदले वह
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