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इन प्रमाणों के अतिरिक्त सिन्धुघाटी की खुदाई में जो पुरातत्त्व प्राप्त हुए हैं, उनमें जैन तीर्थंकरों की नग्न मूर्तियाँ । हैं। परातत्त्वविदों ने इस सामग्री का काल ईसा से तीन हजार वर्ष पर्व आकलित किया है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि जैनधर्म वैदिकयुग से पूर्ववर्ती है। (देखिये, 'Harappa And Jainism' by T.N. Ramachandran, Published by Kundakunda Bharati Prakashan, New Delhi, 1987 A.D.)
यतः जैनधर्म प्राग्वैदिक धर्म है, अतः वैदिकधर्म या हिन्दूधर्म से उसका आविर्भाव संभव ही नहीं है। इसलिए ह हिन्दधर्म की शाखा या अंश हो ही नहीं सकता। गजरात की भाजपा-मोदी-सरकार ने जो उसे हिन्दधर्म का हिस्सा मानने की कोशिश की है, वह एक अत्यन्त झूठा कार्य करने की कोशिश है। उसे सत्य का आदर करते हुए इस कोशिश को निरस्त करना चाहिए। _आराध्य भगवान् या देवी-देवताओं, धर्म ग्रन्थों तथा सिद्धान्तों, विश्वासों एवं मान्यताओं की भिन्नता के कारण जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म परस्पर स्वतंत्र धर्म हैं, जैसे इसी भिन्नता के कारण सिक्खधर्म को मोदी सरकार ने स्वतंत्र धर्म
ना है। विभिन्न धर्मावलम्बियों के एक स्थान में साथ-साथ रहने के कारण एक-दसरे की आदतों. रीतिरिवाजों, रहनसहन की पद्धतियों, भाषा, वेशभूषा और आचार-विचार का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ता है और इस कारण उनमें सामाजिक और सांस्कृतिक समानता दिखायी देने लगती है, किन्तु इस कारण उनके धर्म एक-दूसरे के हिस्से नहीं हो जाते।
इन्हीं तथ्यों को दृष्टि में रखकर माननीय उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में फैसला दिया है कि जैनधर्म एक स्वतंत्र धर्म है, वह हिन्दूधर्म का अंग नहीं है। (देखिये, 'जैन गजट' 28 सितम्बर 2006 का सम्पादकीय)।
इन तथ्यों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए हम गुजरात की मोदी सरकार से आग्रह करते हैं कि वह पारित कराये हए 'गजरात धार्मिक स्वतंत्रता संशोधन अधिनियम 2006' को. जो सर्वथा असत्य मान्यताओं पर आधारित है, असंवैधानिक है और माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध है, तुरन्त निरस्त करे।
रतनचन्द्र जैन
एकाग्रता से आती है निर्भयता स्वामी विवेकानन्द शिकागो के व्याख्यान के बाद अमेरिका में उदार मानवधर्म के वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हो चले थे। वहाँ स्वामी जी वेदांतदर्शन पर प्रवचन दिया करते थे। इस सिलसिले में उनका प्रवास अमेरिका के उन अंदरूनी इलाकों में भी होता, जहाँ | धर्मांध और संकीर्ण विचारधारा वाले लोग होते थे।
एक बार स्वामीजी को ऐसे ही कस्बे में व्याख्यान के लिए बुलाया गया था। एक खुले मैदान में लकड़ी के बक्सों को जमाकर मंच तैयार किया गया था। स्वामीजी ने उस पर खड़े होकर वेदांत, योग और ध्यान पर व्याख्यान देना शुरू किया। बाहर से गुजरने वाले लोग भी उनकी बातें सुनने लगे, जिनमें कुछ चरवाहे भी थे। थोड़ी देर में ही उनमें से कुछ ने बंदूकें निकालीं और स्वामी जी की और निशाना दागने लगे। कोई गोली उनके कान के पास से गुजरती, तो कोई पाँव के पास से। नीचे रखे बक्से तो छलनी हो गए थे। लेकिन इस सबके बावजूद स्वामीजी का व्याख्यान पहले की तरह धाराप्रवाह चलता रहा, न वे थमे न उनकी आवाज काँपी। व्याख्यान के बाद वे स्वामीजी से बोले - आपके जैसा व्यक्ति हमने पहले नहीं देखा। हमारे निशानों के बीच आपका भाषण ऐसे चलता रहा, जैसे कुछ हुआ ही न हो। जबकि हमारे निशाने की एक चूक आपकी जान आफत में डाल सकती थी। स्वामीजी ने उन्हें बताया कि वे जब व्याख्यान दे रहे थे, तब उन्हें बाहरी वातावरण का ज्ञान ही न था। उनका सारा चित्त वेदांत और ध्यान की गहराइयों में था।
मन के इस प्रकार एकाग्र होने पर ऐसी शक्तियाँ विकसित होती हैं, जो परामानवीय लगती हैं। इससे उन चीजों को समझने .की दृष्टि मिलती है, जिनसे मन डर और दुर्बलता से छुटकारा पा जाता है। एकाग्रचित्त होकर किया गया कार्य कुछ इस तरह पूर्ण होता है, जैसे कोई अज्ञात रूप से उसमें मदद कर रहा हो। ध्यान और योग की पहली सीढ़ी एकाग्रता है।
दैनिक भास्कर, भोपाल, 25 अक्टूबर 2006 से साभार
-अक्टूबर 2006 जिनभाषित 5
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