________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 0 मुनि श्री योगसागर जी श्री चन्द्रप्रभस्तवन श्री सपाश्र्वनाथस्तवन (इन्द्रवज्रा छन्द) (वसन्ततिलका छन्द) आदर्श पीयूष सुपार्श्वनाथ / पादारविन्दो मम है सुमाथ / / तेरा चमत्कार अपूर्वता है। जो चिच्चमत्कार प्रकाशता है। 2 है काल काला यह व्याल सा है। प्रत्येक को ग्रास बना रहा है। ये विश्वप्राणी भय से ग्रसे हैं। हे नाथ रक्षा तव हाथ में है। ये काल भी तो तुमसे डरा है। जो आपके ही चरणों झुका है। हारा गया संयम शस्त्र से है। ये आप तो कालजयी बने हैं। 4 सर्वज्ञ सूर्योदय की प्रभाली। आरोग्यदायी शिवसौख्य देती। जो धर्म अम्भोज विकासती है। कारुण्यदायी सुरभी लिये है। श्री चन्द्रनाथ अरहन्त त्रिलोकपूज्य। है अंतरंग बहिरंग प्रकाश पुंज॥ काया अहो स्फटिक निर्मल पारदर्शी। मैं आपसा बन सकूँ निज आत्मदर्शी / / 2 आदर्शवान् तव जीवन को नमोऽस्तु। मिथ्यात्व नाशक दिवाकर को नमोऽस्तु // सम्यक्त्वरत्न निधिदायक को नमोऽस्तु। संसार के तरण तारक को नमोऽस्तु // 3 अम्भोज नील सम नेत्र सुशोभते हैं। निर्ग्रन्थ मात्र तप से सुरभीत से हैं। जो राग-द्वेषमय संसृति से परे है। ये शुद्ध बुद्ध शिवसिद्ध विदेह से हैं। 4 निष्काम भक्ति परमोत्तम कार्यकारी। देवादि के अतिशयादि प्रभावकारी॥ है निर्जरा भव भवान्तर पाप की है। यो ज्ञान तो प्रथम बार हमें मिला है। 5 कोई विकल्प मन में अभिलाष ना है। यों भावना हृदय में उठती सदा है। यों भक्ति में सतत लीन बना रहूँ मैं। जो आप का जप करूँ तव सा बनूँ मैं॥ आशा निराशा परिमुक्त हूँ मैं। अध्यात्म पीयूष सदा चलूँ मैं। अज्ञान-मोही बन के भ्रमा मैं। तेरी प्रभासे निज को लखा मैं॥ प्रस्तुति- रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org