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________________ साधना से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। उदाहरण के | जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, लिए पद्य क्र.4 देखें - यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ।। 38 ।। मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मयो, इस अद्भुत श्लोक को सुनकर जनमानस मंत्रमुग्ध नूनं गुणान्गणयितुं, न तव क्षमेत। हो गया। समस्त जनमेदिनी उस अलौकिक पुरुष को निहार कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मान्, रही थी. जिसके प्रभाव से सम्पर्ण परिवेश वीतरागी अध्यात्म मीयेत केन जलधेर्नन रत्नराशिः॥4॥ छटा से परिपूर्ण बन गया था। विक्रमादित्य सहित उपस्थित उक्त पद्य का मंत्र है - "ॐ नमो भगवते ॐ ह्रीं श्रीं | जनता जैनधर्म की अनयायिनी हो गई। उन्हीं विक्रमादित्य क्लीं अहँ नमः स्वाहा।" की प्रेरणा से कुमुदचन्द्राचार्य ने भक्तिरस के इस चमत्कारी विधि- १ वर्ष तक, वर्ष के लगातार 40 रविवार को स्तोत्र की रचना की। कवि ने भगवान् पार्श्वनाथ की भक्ति में 1000 बार मंत्र जपने से अकालमरण व महिलाओं का गर्भपात खोकर लोकोत्तर उपमाओं और कल्पनाओं द्वारा मानवकल्याण नहीं होता। के लिए एक ऐसी सीढ़ी निर्मित कर दी, जिस पर से हमारी स्तोत्र के सृजन का इतिहास - आचार्य कुमुदचन्द्र आत्मिक अपूर्णता, उस अनंत सम्पूर्णता को संस्पर्शित करने राजकीय कार्य से चित्तौड़गढ़ जा रहे थे। मार्ग में भगवान लगती है, जो आत्मविकास के लिए अपरिहार्य है। (कथानक पार्श्वनाथ जी का एक जैन मन्दिर दिखाई दिया और वे - पं. कमल कुमार/प्रकाशक मोहनलाला शास्त्री/जबलपुर दर्शनार्थ गये। उनकी दृष्टि एक स्तम्भ पर पड़ी, जो एक से साभार उद्धृत) और खुलता भी था। उन्होंने लिखित गप्त संकेतानुसार कुछ कल्याण मन्दिर स्तोत्र में भक्ति तत्त्व का उत्कर्ष - औषधियों के सहारे उसे खोला और उसमें रखे एक अलौकिक सामान्य जन संसार के दःखों से परितप्त है। वह भगवान् ग्रन्थ का प्रथम पृष्ठ पढ़ने लगे। जैसे ही उन्होंने पढ़ने के पार्श्व प्रभु को परम-कारुणिक और इन्द्रियविजेता होने के लिए दूसरा पृष्ठ खोलना चाहा, उन्हें आकाश वाणी सुनाई दी कारण समर्थ्यवान् मानता है। अस्तु! भक्तजन अपने अज्ञान कि "इसे तुम नहीं पढ़ सकते हो" और वह स्तम्भकपाट | का नाश करने व दुःखों को दूर करने के लिए प्रार्थना करता पुनः बन्द हो गया। यही आगे चलकर चमत्कार सिद्धि में कारण बना। "भक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय, दुखाकरोद्दलनआचार्य कुमुदचन्द्र की आत्मशक्ति का प्रखर तेज, तत्परतां विधेहि।" (39) वीतराग की भक्ति से आत्मा पवित्र उज्जयिनी के नरेश विक्रमादित्य को अभिभूत कर गया और बनती है, पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन होता है और पाप राजा ने आपको राजदरबार के ऐतिहासिक नवरत्नों में प्रकृतियों का ह्रास होता है। जिस प्रकार चन्दन के वन में 'क्षपणक' नामक उज्ज्वल रत्न के रूप में अभिभूषित किया। मयर के पहँचते ही वक्षों से लिपटे सर्प तत्काल अलग हो एक बार ओंकारेश्वर के महाकालेश्वर के विशाल | जाते हैं। भक्त के हृदय में आपके विराजमान होते ही संलिष्ट प्राङ्गण में हजारों की संख्या में शैव और शाक्त बैठे हुए थे, | अष्ट कर्मों के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। जिन्हें अपने वैदिक यौगिक चमत्कारों पर बड़ा गर्व था। वे हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति, सभी इस क्षपणक में ऐसा कौन सा चमत्कार है, जिससे जन्तोःक्षणेन निविडाअपिकर्मबन्धाः॥8॥ राजदरबार का रत्न बन बैठा, देखना चाहते थे। नरेश भी भक्ति से भव-तारण - जिस प्रकार मसक को तिरेन परीक्षाप्रधानी था। राजाज्ञा पाकर कुमुदचन्द्र शिवपिण्डी को | में 'उसमें' भरी वायु कारण है, वैसे ही भव समुद्र से भव्य नमस्कार करने आगे बढ़े। वे ज्यों-ज्यों बढ़ रहे थे, चित्तौड़गढ़ का वह भव्य जिनालय, भगवान् पार्श्वनाथ की सौम्यमूर्ति जनों को तिरने में आपका वारम्बार चिन्तवन ही कारण है, अतः आप भवपयोधि तारक कहलाते हैं - और वही स्तम्भ में रखा ग्रन्थ देख रहे थे। कुछ ही क्षणों में जन्मो दधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन, वही स्तम्भ और ग्रन्थ का चमत्कारी पृष्ठ उस शिवमूर्ति के चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः । स्थान पर दिखाई देने लगा। एकाएक उनके मुँह से भक्ति के अष्ट प्रातिहार्य वर्णन में प्रयुक्त प्रतीक-कल्याण मन्दिर उन्मेष में यह श्लोक निकलने लगा - | स्तोत्र के पद्य नं. 19 से 26 तक आठ प्रातिहार्यों का वर्णन है, आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जिनमें प्रयुक्त प्रतीक आत्मा के उन्नतशील बनाने की है 16 सितम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524309
Book TitleJinabhashita 2006 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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