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कल्याण मन्दिर स्तोत्र : एक परिशीलन
प्राचार्य पं.निहालचन्द जैन
भक्ति और ज्ञान-दोनों का लक्ष्य है - 'प्रसुप्त चेतना | भक्तामर स्तोत्र की भांति है। जहाँ श्वेताम्बर इसे अपने गुरु का जागरण'। आत्मा की चैतन्य धारा, सांसारिक भंवर में, | सिद्धसेन दिवाकर की रचना मानते हैं, वहीं दिगम्बर, स्तोत्र ऊर्ध्वारोहण के स्वभाव से च्युत हो, मैली बनी हुई है। चेतना | में आये - "जननयनकुमुद्घन्द्रप्रभास्वराः" से आचार्य की अधोगति है संसार की ओर अभिमुखता और ऊर्ध्वगति | कुमुदचन्द्र की मानते हैं। है मुक्तिसोपान की ओर बढ़ना। अर्हद्भक्ति', अधोगति को । यह दिगम्बर आचार्य प्रणीत रचना है, इसके दो ठोस मिटाकर आत्मा की विशुद्धि को बढ़ाती है। स्तोत्रकाव्य, | प्रमाण अधोलिखित हैं - (1) स्तोत्र के 31 वें पद्य से लेकर
अर्हद्भक्ति के उत्कृष्ट नमूने हैं। भक्ति-परक स्तोत्र अनेक 33 वें पद्य तक भगवान् पार्श्वनाथ पर दैत्य कमठ द्वारा किये हैं। यहाँ प्रमुख 4-5 स्तोत्रों को भूमिका में समाहित कर रहा | गये उपसर्गों का वर्णन है, जो श्वेताम्बरपरम्परा के प्रतिकूल हूँ। आचार्य मानतुंग का भक्तामरस्तोत्र, श्री समन्तभद्र स्वामी | है, क्योंकि श्वेताम्बरपरम्परा में भगवान पार्श्वनाथ के स्थान का बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, कुमुदचन्द्राचार्य का कल्याणमन्दिर स्तोत्र, | | पर भगवान् महावीर को सोपसर्ग माना है, जबकि दिगम्बरवादिराजसूरि का एकीभावस्तोत्र और धनञ्जय महाकवि का | परम्परा में भगवान् पार्श्वनाथ को सोपसर्ग माना है, भगवान् विषापहारस्तोत्र । इन स्तोत्रों के साथ कोई न कोई सृजन-कथा महावीर को नहीं। (2) इसी प्रकार 19 वें पद्य से लेकर 26 जुड़ी हुई है। चमत्कार या अतिशय का घटित होना स्तोत्र का वें पद्य तक भक्तामरस्तोत्र की भाँति आठ प्रातिहार्यों का नैसर्गिक प्रभाव कहें या उनमें समाहित/गुम्फित मन्त्रों की | वर्णन है, जो केवल दिगम्बर परम्परा में ही मान्य है। सिंहासन, शब्द-शक्ति। शब्द-शक्ति की अभिव्यंजना से अनुस्यूत स्तोत्र भामण्डल, दुन्दुभि और छत्र प्रातिहार्यों का प्रतिपादन तन्मयता और भाव-प्रवणता के अचूक उदाहरण हैं। उनकी | | श्वेताम्बरसम्मत भक्तामरस्तोत्र (केवल 44 पद्य) में नहीं है। ज्ञेयता में ही भक्ति का उन्मेष और उत्कर्ष है।
संकटमोचन कल्याण मन्दिर स्तोत्र - भगवान् पार्श्वनाथ कल्याणमन्दिरस्तोत्र का रचनाकाल विक्रम सं. 625 | एक संकटमोचक लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसका माना गया है। अनुश्रुति के आधार पर आचार्य कुमुदचन्द्र पर | कारण भगवान् पार्श्वनाथ के विगत दस भवों की जीवन कोई विपत्ति आई हुई थी। कहा जाता है कि उज्जयिनी में | गाथा की वह भावदशा है, जिसमें उनका प्रत्येक भव मे वादविवाद में इसके प्रभाव से एक अन्य देव की मूर्ति में श्री | आये उपसर्ग एवं कष्टों में समताभावी व. क्षमाशील बने पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हो गयी थी। इसमें भगवान् | रहना। प्रतिशोध की भावना भी उनके हृदय में नहीं आयी। पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है, अस्तु इसका नाम “पार्श्वनाथ | बैरी, कमठ के जीव ने, जब वह शम्बर-देव की पर्याय में स्तोत्र'' भी है। इसकी अपूर्व महिमा है। इसका पाठ या जाप | था और पार्श्वनाथ वन में तपस्या में लीन थे, अवधिज्ञान से करने से समस्त विघ्न बाधायें दूर होती हैं और सुखशान्ति | अपने अतीत को याद किया और प्रतिशोध की अग्नि में प्राप्त होती है। जिनशासन का प्रभाव या चमत्कार दिखाने के | जलने लगा। सात दिन तक भारी उपसर्ग किये। अन्त में लिए प्रायः ऐसे भक्ति स्तोत्रों का उद्गम हुआ है। जैसे स्वयम्भू | धरणेन्द्र अपनी देवी पद्मावती के साथ प्रकट हुए और स्तोत्र - समन्तभद्र स्वामी को शिवपिण्डी का नमस्कार करने | उन्होंने भगवान को अपने फणों पर उठाकर उन उपसर्गों से के लिए बाध्य किया गया और वह पिण्डी अचानक फटी | रक्षा का भाव किया। अस्तु नायक की स्तुति भी महाभय
और भगवान् चन्द्रप्रभु की प्रतिमा अनावरित हो गयी। आचार्य | विनाशक और कष्टनिवारक है। उदाहरणार्थ - पद्य क्र. 3 मानतुंग भक्तामर के पदों की रचनाकर, भक्ति में डूबते गये | जलभय-निवारक, क्र. 4 असमय-निधन-निवारक, क्रं.11 और 48 ताले अनायास खुलते गये। धनञ्जय कवि के पुत्र जलाग्निभय-निवारक, क्र.12 अग्निभय-निवारक और क्र.16 के विष का परिहार हुआ। इसी प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ का गहन-वन-पर्वत-भय-निवारक है। वहीं पद्य 18 सर्पविषजो संकटहरण-देव के रूप में लोकमानस में प्रतिष्ठित हैं, | विनाशक, क्र.19 नेत्ररोग-विनाशक, क्र.25 असाध्यरोगस्तवन करने से आचार्य कुमुदचन्द्र का उपसर्ग दूर हुआ। इस | शामक और क्र.27 वैरविरोध-विनाशक है। स्तोत्र की मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में प्रत्येक पद्य का एक विशेष मन्त्र है, जिसकी विधिवत
- सितम्बर 2006 जिनभाषित 15
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