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की पत्नी के रूप में पद्मावती का नाम नहीं लिखा है) भ. | है। निष्प्रयोजन परपीड़ादायक कुछ भी बकवास करना, पार्श्वनाथ को सिर पर उठाने का प्रसंग आगमसम्मत नहीं है। | अनर्गल प्रलाप करना वाचनिक अधिकरण है। बिना प्रयोजन अतः ऐसी मूर्तियों को आगमानुसार कैसे माना जाये ? | चलते हुए, ठहरते हुए, बैठते हुए, सचित्त एवं अचित्त पत्र,
जिज्ञासा - सम्यक्त्वाचरण तथा स्वरूपाचरण चारित्र पुष्प, फलों का छेदन-भेदन, कुटन, क्षेपण आदि करना, क्या पर्यायवाची हैं या इनमें कुछ अन्तर है ?
अग्नि, विष, क्षार आदि पदार्थ देना आदि जो क्रिया की जाती समाधान - स्वरूपाचरण नामक चरित्र का वर्णन किसी | है, वह कायिक अधिकरण है। ये सर्व असमीक्ष्याधिकरण भी आचार्य ने नहीं किया। यह तो पंचाध्यायीकार पाण्डे | हैं, अर्थात् मन-वचन-काय की निष्प्रयोजन चेष्टा राजमल जी की कल्पना मात्र है। आचार्य कुन्दकुन्द ने | असमीक्ष्याधिकरण है। (5)। चारित्रपाहुड़ गाथा 5 से 10 तक जो सम्यक्त्वाचरणचारित्र का जिज्ञासा - चतुर्गति-निगोद किसे कहते हैं ? वर्णन किया है, उसका संबंध सम्यक् चारित्र से बिल्कुल समाधान - इस शब्द की परिभाषा श्री धवला पु. 14, नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 25 दोषों से रहित और अष्ट | पृष्ठ 236 पर इस प्रकार कही है - "जे देव-णेरइय-तिरिक्खअंग से सहित सम्यग्दर्शन को धारण करना सम्यक्त्वाचरण- | मणुस्सेसुप्पजियूण पुणो णिगोदेसु पविसिय अच्छंति ते चारित्र कहा है। सम्यक्चारित्र को संयमाचरणचारित्र नाम से | | चदुगइणिगोदा भण्णंति।" अलग कहा है। इस संयमाचरण चारित्र को धारण करने । अर्थ - जो निगोदजीव देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों वाला ही मोक्षमार्गी कहलाता है। जिसके पास सम्यक्त्वाचरण | में उत्पन्न होकर पुनः निगोद जीवों में प्रविष्ट होते हैं, वे चारित्र नहीं है, उसके पास सम्यग्दर्शन भी नहीं है, ऐसा | चतुर्गतिनिगोद कहलाते हैं। समझना चाहिए। शास्त्रों में स्वरूपाचरण नामक चारित्र तो जिज्ञासा - अरहन्त अवस्था में अन्तरायकर्म के क्षय नहीं कहा, पर ऐसा जरूर कहा है - "रागद्वेषाभावलक्षणं | हो जाने पर क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग आदि क्या होते परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपेचरणं निश्चयचारित्रं भणंति।इदानीं | हैं? तदभावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः।" (परमात्मप्रकाश गाथा समाधान - इस संबंध में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने 2, 39 टीका)।
सवार्थसिद्धि टीका में इस प्रकार कहा है - अर्थ - रागद्वेष का अभाव जिसका लक्षण है, ऐसे | 1. सम्पूर्ण उपभोगान्तरायकर्म के क्षय से केवली परमयथाख्यातरूप स्वरूप में आचरण निश्चयचारित्र है। भगवान् को जो सिंहासन, चामर, और छत्रत्रय आदिरूप वर्तमान में उसका अभाव होने से मुनिगण अन्य चारित्र का | विभूतियाँ प्राप्त होती हैं, उन्हें क्षायिक अनन्त उपभोग कहते आचरण करें।
सम्यक्त्वाचरण तो चतुर्थ गुणस्थान में होता है, परन्तु 2. सम्पूर्ण भोगान्तरायकर्म के क्षय से जो पुष्पवृष्टि स्वरूप में आचरणरूप चारित्र तो ग्यारहवें गुणस्थान में कहा | आदि रूप अनन्त भोग सामग्री प्राप्त होती है, उसे क्षायिक गया है, जैसा ऊपर प्रमाण है। सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के अनन्त भोग कहते हैं। साथ-साथ उसके अनुकूल आचरण भी होने लगता है, वही 3. वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से केवली सम्यक्त्वाचरण कहा गया है।
के जो अनन्त शक्ति प्रकट होती है, उसे क्षायिक अनन्तवीर्य जिज्ञासा - तत्वार्थसूत्र में अनर्थदण्डव्रतों के अतिचार | कहते हैं। में असमीक्ष्याधिकरण' से क्या तात्पर्य है ?
4. दानान्तराय कर्म के सम्पूर्ण विनाश होने से समाधान - श्री राजवार्तिककार ने 'असमीक्ष्याधिकरण' त्रिकालवर्ती अनन्त प्राणियों का अनुग्रह करनेवाला क्षायिक शब्द का अच्छा स्पष्टीकरण किया है, जो इस प्रकार है - | अभयदान प्रकट होता है। बिना प्रयोजन आधिक्य करना अधिकरण है। अधिकरण | 5.सम्पूर्ण लाभान्तराय कर्म के क्षय से कवलाहारक्रिया शब्द में 'अधि' का अर्थ 'अधिकरूप' में है और करण का | से रहित केवलियों के क्षायिक लाभ होता है, जिससे उनके अर्थ अपूर्व प्रादुर्भाव है, अपूर्व के उत्पादन में बिना प्रयोजन | शरीर को बल प्रदान करने में कारणभूत, दूसरे मनुष्यों को आधिक्यरूप से प्रवर्तन करना अधिकरण कहलाता है। (4)। असाधारण अर्थात् कभी न प्राप्त होने वाले परम शुभ और
मन, वचन और काय के भेद से अधिकरण तीन | सूक्ष्म ऐसे अनन्त परमाणु प्रतिमय संबंध को प्राप्त होते हैं। प्रकार का है। निरर्थक काव्य आदि का चिंतन मानस अधिकरण
1/205, प्रोफेसर्स कालोनी
आगरा (उ.प्र.) 24 अगस्त 2006 जिनभाषित
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