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________________ पुष्टि अधिसूचना क्रमांक 234, दिनांक 27.08.1917 प्रमुख | एक भी छदाम पुरातत्त्व विभाग ने इन जैन मंदिरों पर खर्च आयुक्त ने की थी, को गवर्नर इन कॉउसिंल ने पुनः | नहीं की। उसका दृष्टिकोण कुछ ऐसा ही रहा कि बच्चे पर अधिसूचना क्रमांक P-72-A-B-358 तथा सूची क्रमांक 43 | अधिकार तो मेरा है, किन्तु जो उसे अपना मानते हैं वे उसे व 44 की पुष्टि अधिसूचना दिनांक 11.4.1925 से की। | अच्छे से पाल रहे हैं, इसलिए मुझे चिंता की जरूरत नहीं। अधिसूचना क्रमांक 19 की पुष्टि गवर्नर इन कौंसिल ने | सिद्ध है कि धर्म व पुरातत्त्व की सुरक्षा किन्हीं चंद अधिसूचना क्रमांक C-72-A-B-358 दिनांक 11.4.1925 | व्यक्तियों की नहीं, सम्पूर्ण समाज की चिंता का विषय थी, की सूची क्रमांक 48 पर की। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है | इस जीर्णोद्धार को समस्त मुनिसंघ और अधिकांश जैनसमाज कि कुण्डलपुर के मंदिर कभी भी संरक्षित घोषित नहीं हुए। | की स्वीकृति थी। यही कारण है कि समाज ने इसके विरोध पुरातत्त्व विभाग की भूमिका । पर तीखी, अनचाही और अनपेक्षित प्रतिक्रिया व्यक्त की, पर्याप्त दस्तावेजों के अभाव में एवं गलत जानकारियों | चाहे वह समाज के व्यक्ति द्वारा की गई अथवा पुरातत्त्व के कारण पुरातत्त्व विभाग इस सम्पूर्ण प्रकरण में अकारण | विभाग या प्रशासन के द्वारा । आचार्यों तथा देव, शास्त्र व गुरु उलझा, फिर भी प्रश्न केवल एक है कि जिस किसी भी | का अकारण विरोध न वंदनीय है, न स्तुत्य। सच पूछा जाये नोटीफिकेशन के आधार पर, जब कभी भी विभाग ने पाया | तो जिनकी चिंता का यह विषय रहा है और है, वे ही उसकी कि कुंडलपुर के पहाड़ी पर के मंदिर उसके संरक्षित स्मारक | चिंता करते रहे हैं, करते रहेंगे, धार्मिक, आध्यात्मिक, हैं, तो उसके बाद उसने किया क्या ? कौन सा दायित्वनिर्वहन, | व्यावहारिक दृष्टि से पूरे तत्त्वों - वास्तु, कलात्मकता, प्राचीन मंदिरों की सुरक्षा, रख-रखाव, मरम्मत, जीर्णोद्धार हेतु कब | संस्कृति, भव्यता, पवित्रता तथा सुरक्षा और अखण्डता का किया ? कितने आश्चर्य की बात है कि आज दिनांक तक ध्यान रखते हुए। भोपाल,म.प्र. इस संसार में धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जो पर-भव में भी जीव के साथ जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य सब वस्तुएँ उसी पर्याय में नाता तोड़ देती हैं। जैसे बंधुगण तो श्मशान तक ही साथ देते हैं, धन घर में ही पड़ा रह जाता है, और शरीर चिता की भस्म बन जाता है। In this world of transmigration, it is dharma alone that accomplanies the soul when it passes into another body. All things other than that, forsake company in this mode (paryaya) itself. Relatives, for instance, accompany upto the crematorium (smasana), wealth remains behind at home and body is reduced to ashes. हे आत्मन्! जबकि शरीर अचेतन, अनित्य और अपवित्र है, किन्तु तू सचेतन, नित्य और पवित्र है, तब तुम दोनों में अभेद (एकता) कैसे हो सकता है ? O soul! this body is unconscious, ephemeral and unholy while you are conscious, eternal and pure. How then can you two be one and the same? जैसे रात्रि में दुर्भेद्य सघन अंधकार को एक मात्र सूर्य ही नष्ट कर सकता है, अन्य कोई नहीं, वैसे ही जिनेन्द्र भगवान् के वचन एवं जिनागम को छोड़कर अन्य कोई भी पाप को नष्ट करने में समर्थ नहीं है। Just as the impenetrable darkness of night can be dispelled only by the sun, and by none else, similary nothing other than the words of Lord Jina and Jina scriptures are capable of destroying sin. वीरदेशना 22 अगस्त 2006 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524308
Book TitleJinabhashita 2006 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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