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उच्चतम न्यायालय में दयोदय का उदय हुआ
• आचार्य श्री विद्यासागर जी
उच्चतम न्यायालय द्वारा गोवंश वध को प्रतिबंधित किये जाने के प्रसंग में बीना (बारहा) म.प्र. में अभिव्यक्त उद्गार
"सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह बहुत ही पवित्र कार्य हुआ है। यह राष्ट्रीय घोषणा ही नहीं, बल्कि इसका प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पड़ेगा। लोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होनेवाली घटनाओं पर दृष्टि रखते ही हैं। भारत लोकतांत्रिक दृष्टि रखनेवाला बड़ा राष्ट्र है। न्यायालय की यह घोषणा भारत के ही उत्कर्ष के लिये नहीं, अपितु विश्व के उत्कर्ष के लिये भी कारणभूत होगी। सुप्रीमकोर्ट में सात जजों की बैंच ने बहुमत से घोषणा की है कि गोवंश वध के योग्य नहीं है, अतः उसे सुरक्षित रखा जाये। परीक्षार्थी परीक्षा देकर बैठता नहीं है, बल्कि सफलता की खबर सुनने को आतुर रहता है। वैसे ही अब विश्वास साकार हुआ कि अहिंसा की आराधना न्यायालयों में आज विद्यमान है। इस निर्णय से लगा कि उच्चतम न्यायालय में भी दयोदय का यानी दया का उदय हो गया है" -उक्त उद्गार दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने बीना बारहा देवरी सागर, म. प्र. वर्षायोग निष्ठापन महोत्सव के दौरान व्यक्त किये।
विगत दिनों सुप्रीमकोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने 6:1 के बहुमत से सम्पूर्ण गोवंशवध के प्रतिबंध को न्यायसम्मत ठहराए जाने वाले 135 पृष्ठीय निर्णय की एक प्रति आचार्यप्रवर को सौंपे जाने पर आपने कहा कि अहिंसा हम सबका एक देवता है। उसकी पूजा-आराधना करना हम सभी का कर्तव्य है। धन या पैसा की आराधना नहीं, अपितु गुणों की उपासना करना, अहिंसाधर्म का पालन करना ही सभी का परम कर्तव्य है । अहिंसा की आराधना करनेवाले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य जजों के द्वारा यह निर्णय हुआ है। सुना है वे अवकाश प्राप्त कर रहे हैं। हम तो यह चाहते हैं। कि उन्हें संसार से शीघ्र ही अनंतकालीन अवकाश (मोक्ष) प्राप्त हो जाये। इतिहास में यह निर्णय सदा याद रखा जायेगा। इससे फलित हुआ कि न्यायालयों में भी अहिंसा के प्रति भक्ति-भाव आज भी विद्यमान है ।
आपने कहा कि पशु भी इस निर्णय के पश्चात् सोच रहे होंगे कि हमें भी अब जीवन जीने की स्वतंत्रता मिल
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गयी है। अब उन बूढे अशक्त जानवरों की अनुपयोगिता के स्थान पर सही उपयोगिता सिद्ध करने और उसका क्रियान्वयन करने / कराने की आवश्यकता है। कोई भले ही इन पशुओं को वध के योग्य कहे या माने पर सभी को इनके संरक्षण का कार्य करके दिखाना है। पहले राजा सब को बाध्य कर सकता था, किन्तु आज यह प्रजासत्तात्मक देश है, अतः किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। इसलिये प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है कि वह इन मूक जानवरों का भी संरक्षण करे। इसके बिना इनका संरक्षण का कार्य नहीं होगा।
आचार्य विद्यासागर जी ने अपने दीक्षा एवं शिक्षा गुरु जैनाचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का स्मरण करते हुये कहा कि महाराज जी ने (पं. भूरामल शास्त्री की अवस्था में) रत्नकरण्डक श्रावकाचार का अर्थ 'मानव-धर्म' के नाम से किया है। वैसे ही उनकी एक अन्य मौलिक कृति 'पवित्र मानव जीवन' भी है। उसमें उन्होंने एक पद्य में लिखा है कि पहले किसान या वणिक के आंगन में गौ यानी गाय का रव (स्वर) उठता था। इसके कारण मालिक गौरव का अनुभव करता था। उन्हें जो उस समय महसूस हुआ उसे उन्होंने कविता में लिखा था, किन्तु खेद की बात यह है कि आज उसका वध किया जा रहा है। उस मूक पशुधन का कटना इस युग के लिये अभिशाप है। भले ही कविजन अपने भावों को कविता में कुछ अन्य प्रकार से ही लिखते हों, किन्तु महाराज जी ने तो उस गौ के रव करने को तब गौरव का चिह्न माना था। वे जहाँ भी होंगे यह खबर सुनकर अवश्य ही खुश
होंगे।
आचार्यश्री ने यह भी कहा कि लोग कहा करते थे कि महाराज 'मांसनिर्यात' का विरोध करने हेतु आप दिल्ली चलो। वह देश की राजधानी है। हम तो यही कहते थे कि हमारी आवाज / भावना को ही यहाँ से वहाँ तक पहुँचा दो। भावों का विस्तार सर्वत्र हो जाता है। अतः सिद्धान्त को जाननेवाली सुप्रीमकोट/सरकार/संसद तक हमारी भावना को पहुँचा दो ।
आचार्यश्री ने अपने गुजरात-प्रवास को स्मरण करते हुए कहा कि सिद्धक्षेत्र गिरनार (जूनागढ़) में नेमीनाथ भगवान् के चरणों में भावना भायी थी कि पशुओं को बाड़े में वध हेतु बंद देखकर आपने शादी नहीं की थी। जूनागढ़ से आप रथ को छोड़कर गिरनार जी की ओर चल दिये थे। पशुओं को बंधन में बँधे हुए देखकर, उन्हें स्वतंत्रता दिलाने के लिये, चूँकि आप
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