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________________ अनन्तानुबंधी के द्वारा सम्यक्त्व के द्वारा सम्यक्त्व और (ए) श्री धवल पु. 6, पृष्ठ 42 पर इस प्रकार कहा संयम घाता जाता है। है-'प्रश्न-अनंतानुबंधी कषायों की शक्ति दो प्रकार की है, (इ) श्री धवला पु. 1 पृष्ठ 361 पर इस प्रकार कहा इस विषय में क्या युक्ति है?' उत्तर-ये चतष्क दर्शन मोहनीय है, 'मिथ्यादष्टि जीवों के भले ही दोनों (मति व श्रत) अज्ञान स्वरूप नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति, होवें, क्योंकि वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्वारा ही आवरण किये चाहिये?' उत्तर- नहीं क्योंकि, विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व जाने वाले दर्शन मोहनीय के फल का अभाव है और न इन्हें कहते हैं और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व और अनंतानबंधी चारित्र मोहनीय स्वरूप ही माना जा सकता है, क्योंकि इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के द्वारा आवरण किये गये (ई) पंचसंग्रह प्राकृत 1 /115 में इस प्रकार कहा है, ' चारित्र के आवरण करने में फल का अभाव है, इसलिये 'पढमो दंसणघाई विदिओ तह घाइ देसविरड त्ति तडओ उपयुक्त अनंतानुबंधी कषायों का अभाव ही सिद्ध होता है। संजमघाई चउत्थो जहरवाय घाईया'। प्रथम अनन्तानुबंधी किन्तु उन किन्तु उनका अभाव नहीं है, क्योंकि सूत्र में इनका अस्तित्व कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है. द्वितीय पाया जाता है । इसलिये इन अनंतानुबंधी कषायों के उदय से अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरति का घातक है. ततीय सासादन भाव की उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती है। इस ही प्रत्याख्यानावरण कषाय सकल संयम की घातक है और अन्यथानुपत्ति से इनके दर्शनमोहनीयता और चारित्र मोहनीयता चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है। अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र को घात करने की शक्ति का (उ) अनंतानबंधी यद्यपि चारित्रमोहनीय ही है तथापि हासिल होता है। वह स्वक्षेत्र तथा परक्षेत्र में घात करने की शक्ति से यक्त है। पूज्य आचार्य वीरसेन महाराज आदि के उपरोक्त श्री धवल पु. 6 पृष्ठ 42-43 में कहा है कि 'अणंताणबंधिणो- प्रमाणों से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अनन्तानुबंधी सम्यक्त्व --------सम्मत्तचारित्ताणं विरोहिणी। दविहसत्तिसंजदत्तादो। का भी घात करती है। इतना और भी विशेष है कि मोक्षमार्ग ----एदेसिं-------सिद्धं दंसणमोहणीयत्तं चरित्तमोहणीयत्तं प्रकाशक, नवें अधिकार में पं. टोडरमल जी ने इस प्रकार कहा है- 'यहाँ प्रश्न-जो अनंतानुबंधी तो चारित्रमोह की च'। अर्थ-गुरु उपदेश तथा युक्ति से जाना जाता है कि अनंतानुबंधी कषायों की शक्ति से दो प्रकार की है। इसलिये प्रकृति है सो चारित्र को घातै, याकरि सम्यक्त्व का घात कैसे सम्यक्त्व व चारित्र इन दोनों को घातने वाली दो प्रकार की सम्भवै? ताका समाधान-अनंतानुबंधी के उदय क्रोधादि की शक्ति से संयुक्त अनंतानुबंधी है। --------- इस रूप परिणाम हो हैं, किछु अतत्त्व श्रद्धान होता नाहीं। तातें प्रकार सिद्ध होता है कि अनंतानुबंधी दर्शन मोहनीय भी है, अनंतानुबंधी चारित्र ही को घाते है, सम्यक्त्व को नाहीं चारित्र मोहनीय भी है। अर्थात् सम्यक्त्व तथा चारित्र को घातै है।' मोक्षमार्ग प्रकाशक का यह कथन उपरोक्त घातने की शक्ति से संयुक्त है। इस प्रकार अनंतानुबंधी की आगम प्रमाणों के अनुसार न होने से आगम सम्मत नहीं दोनों शक्तियों को स्वीकार करना चाहिये। जिज्ञासा-2 के समाधान में 'सासादन में उपशम (ऊ) श्री धवला पु. 1, पृष्ठ 165 पर इस प्रकार कहा सम्यक्त्व का काल है' इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये है- 'अनन्तानुबंधी प्रकृतियों की द्विस्वाभावता का कथन सिद्ध हो जाता है तथा जिस अनंतानुबंधी के उदय से दूसरे कि दूसरे गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान वाला णासियम्मोत्तो (गो. जी. 20, प्रा. पं. सं.1/9, गुणस्थान में विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनंतानुबंधी श्री धवल1/66) अर्थात् नाशित सम्यक्त्व (जिसका सम्यक्त्व दर्शन मोहनीय का भेद नह होकर चारित्र का आवरण करने रत्न नष्ट हो चुका ऐसा जीव) कहलाता है। सासादन गुणी वाला होने से चारित्र मोहनीय का भेद है'। प्रश्न-अनंतानुबंधी असदृष्टि है। (धवल 1/165) वह उपशम सम्यक्त्व के सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक होने से उसे काल के अंत में पतित-नाशित सम्यक्त्व होकर ही सासादन उभयरूप संज्ञा देना न्याय संगत है? उत्तर-यह आरोप ठीक को प्राप्त होता है, स्थितिभूत उपशम सम्यक्त्व के साथ सासादन नहीं है, क्योंकि यह तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् अनंतानुबंधी में नहीं जाता, यह अभिप्राय है। सासादन में उपशम सम्यक्त्व को सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबंधक माना का काल है ' इसका अभिप्राय यह है कि उपशम सम्यक्त्व ही है। दिसम्बर 2005 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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