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________________ अर्थ- देवों के शरीर में केश, नख, मूंछ, रोम, चर्म, वसा, बनाना योग्य है। रूधिर, मूत्र और विष्टा नहीं हैं तथा हड्डी और सिरातल भी प्रश्नकर्ता-ब्र. हेमचन्द्र जी 'हेम', भोपाल नहीं होते हैं। जिज्ञासा-कृपया इन मान्यताओं के बारे में अपने विचार ____ 2. तिलोयपण्णत्ति के तृतीय अधिकार में इस प्रकार लिखेंकहा है 1. परमार्थतः अनन्तानबंधी चारित्र की प्रकृति है, वह अट्ठि-सिरा-रुहिर-वसा-मुत्त-पुरीसाणि केस-लोमाई। चारित्र ही का घात करती है, सम्यक्त्व का घात नहीं करती चम्म-णह-मंस-पहुदीण होंति देवाण संघडणे॥212॥ है। अर्थ- देवों के शरीर रचना, हड़ी, नस, रुधिर, चर्बी, मत्र, णस्थान में उपशम सम्यक्त्व का ही काल मल, केश, रोम, चमड़ा, नख और मांस आदि नहीं होते हैं। है, इसलिये उसे सासादन सम्यग्दृष्टि कहा/सासादन मिथ्यादृष्टि 3. श्री सिद्धान्तसार दीपक में इस प्रकार कहा है- नहीं कहा। नेत्रस्पन्दो न जात्वेषां न स्वेदो न मलादि च। समाधान-उपरोक्त जिज्ञासा 1. (अ) के समाधान में नखकेशादिकं नैव नवार्धक्यं नरोगिता॥307॥ कृपया धवल पुस्तक 1 पृष्ठ 163 का अवलोकन करें। वहाँ अर्थ- स्वर्गों में देवों के नेत्रों का परिस्पंदन नहीं होता इस प्रकार कहा है, 'प्रश्न-सासादन गुणस्थान वाला जीव है। उनके न पसीना आता है, न मल-मूत्र आदि होता है, न मिथ्यात्व का उदय होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है', समीचीन नख केश आदि होते हैं, न वृद्धपन आता है और न किसी रुचि का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि भी नहीं है। दोनों को प्रकार के रोग होते हैं। विषय करने वाली सम्यग्मिथ्यात्व रूप रुचि का अभाव होने 4. बोध पाहुड गाथा 32 की टीका में इस प्रकार कहा से सम्यग्दृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं क्योंकि समीचीन-असमीचीन और उभयरूप देवा विय नेरइया हलहरचक्की य तह तित्थयरा। दृष्टि के आलम्बनभूत वस्तु के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु सव्वे केसवरामा कामा निक्कुंचिया होंति ॥32॥ पायी नहीं जाती है। इसलिये सासादन गुणस्थान असत्स्वरूप अर्थ-देव, नारकी, हलधर-बलभद्र, चक्रवर्ती, अर्ध है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि सासादन गुणस्थान मे चक्रवर्ती, सभी नारायण और कामदेव ये डाढ़ी-मूछ से रहित विपरीत अभिप्राय रहता है, इसलिये उसे असदृष्टि ही होते हैं। समझना चाहिये। प्रश्न-यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिये, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है? 4. श्री महापुराण भाग-1 पृष्ठ 259 पर इस प्रकार उत्तर-नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबन्ध कहा है- सौधर्म स्वर्ग के देवों के शरीर में नख, चर्म और करने वाली अनंतानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ सिर में रोम नहीं होते हैं। रक्त, पित्त, मल, मूत्र, नसें, मांस विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, और डाढ़ी केश नहीं होते हैं। इसलिये द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यादृष्टि है किन्तु उपरोक्त सभी प्रमाणों के अनुसार देवों के सिर के मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश केश, रोम तथा डाढ़ी, मूंछ नहीं होते हैं। परन्तु आदिपुराण वहाँ नहीं पाया जाता है, इसलिये उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते पर्व 10, श्लोक नं. 178 में अच्युत स्वर्ग के इन्द्र का वर्णन हैं। केवल सासादन सम्यग्दष्टि कहते हैं। प्रश्न-ऊपर के करते हुए, इस प्रकार कहा है- काले-काले केश और श्वेत वत कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि वर्ण की पगड़ी से सहित उसका मस्तष्क ऐसा जान पड़ता संज्ञा क्यों नहीं दी गयी है? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि था. मानो तापिच्छ पुष्प से सहित और आकाश गंगा के पूर से सासाटन गणस्थान को स्वतंत्र कहने से अनंतानबंधी प्रकतियों युक्त हिमालय का शिखर ही हो। अर्थात् अहमिन्द्र के सिर की द्विस्वभाव का कथन सिद्ध हो जाता है। (आ) गोम्मटसार पर काले-काले केश थे। कर्मकाण्ड टीका 546/71/12 में इस प्रकार कहा है, इस प्रकार आचार्य जिनसेन महाराज देवों के सिर पर 'मिथ्यात्वेन सहोदीयमानाः कषायाः सम्यक्त्वंधनन्ति । केश तो मानते हैं परन्तु डाढ़ी मूंछ के सम्बन्ध में कुछ भी अनन्तानुबंधिना च सम्यक्त्वसंयमौ।' अर्थ-मिथ्यात्व के साथ नहीं कह रहे हैं। हमें सभी प्रसंगों को ध्यान में रखकर धारणा उदय होने वाली कषाय सम्यक्त्व को घातती है और 26 दिसम्बर 2005 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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