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________________ एक प्रासंगिक ज्वलंत समस्या अल्पसंख्यक : एक संवैधानिक कवच या लाभ का जरिया ? कैलाश मड़बैया गुजरात की गत यात्रा में, मैंने वहाँ के एक समाचार पत्र में यह खबर पढ़ी थी - मध्यप्रदेश में छिन सकता है जैनियों का अल्पसंख्यक दर्जा : आश्चर्य हुआ कि म.प्र. में ऐसा कोई विवाद अभी चर्चा में नहीं है और गुजरात में पेपरबाजी शुरु ? क्या गुजरात ने ही अल्पसंख्यकों के विवादों की ठेकेदारी ले ली है? . यह वही गुजरात है जहाँ अहिंसक और अल्पसंख्यक जैन, अपना आदिकालीन तीर्थ गिरनार बचाने के लिये पहली बार सड़क पर आ गये हैं और राज्य सरकार चंद अराजक तत्त्वों के विरुद्ध कार्यवाही तक नहीं कर रही है। बाद में ज्ञात हुआ कि 8 अगस्त 05 को ही माननीय सुप्रीमकोर्ट ने श्री बाल पाटिल की एक रिट पिटीशन पर निर्णय दिया है कि... अल्पसंख्यक समुदाय का निर्धारण राज्यों को करना चाहिये । शायद इसलिये कि शिक्षा राज्य सरकार की परीधि का विषय है। यह भी कि लोकतांत्रिक समाज का आदर्श होना चाहिये कि अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक और तथाकथित पिछड़े वर्गों का फर्क खत्म कर देना...! आदि और राष्ट्रीय स्तर पर जैनों को अल्पसंख्यक दर्जा देने के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अनुरोध को नामंजूर कर दिया। यह जैनों के लिये आघात है। वास्तव में माननीय न्यायालय का मत अपनी जगह नहीं है। पर असहमति केवल इतनी हो सकती हैं कि संविधान के आर्टीकल 25 से 30 में जब तक अल्पसंख्यकों के प्रावधान निहित हैं, तब तक कोई एक समाज वास्तविक पात्र होते हुये भी इस संवैधानिक सुरक्षा से वंचित क्यों रहे? जैसे- गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की सदस्य सूची इसलिये प्रकाशित नहीं की जाये कि सरकार ने गरीबी क्यों मिटाई ? चूँकि इससे समाज में गरीबी और अमीरी का एक वर्ग तैयार होता है, जो राष्ट्रीय विषमता पैदा करता है आदि क्या इससे गरीबी रेखा के नीचे वालों का हक छिन जाना चाहिये ? पुनः इसकी तह में जाने पर ज्ञात होता है कि यह विवाद तो वास्तव में 1992 में संसद द्वारा पारित The National Commission for Minorities Act 1992 के 'समय से ही प्रारम्भ हो गया था, जब इसकी धारा 2सी में Jain Education International अल्पसंख्यकों को यह कहकर परिभाषित किया कि अल्पसंख्यक वह समुदाय है, जिसे केन्द्र सरकार अपनी विज्ञप्ति में जो इस हेतु प्रकाशित हो, उल्लेख कर घोषित करें ! मतलब अल्पसंख्यक घोषित करने की राजनीति शुरु ! इतना ही नहीं ! केन्द्र सरकार ने धार्मिक आधार पर बौद्ध, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी समाज को तो अल्पसंख्यक घोषित कर दिया और सम्पूर्ण पात्रतायें होते हुये भी शान्त रहने वाले जैन समाज को अघोषित छोड़ दिया। बस तभी से न्यायोचित होते हुये भी यह विवाद जारी है। अल्पसंख्यक आयोग और कई उच्च न्यायालयों के निर्देशों के बावजूद भी केन्द्र सरकार उक्त एक्ट की धारा 2सी के तहत घोषणा करता है इसलिये नहीं कर रही है कि न तो जैन समाज अन्यों की तरह हिंसा पर उतारू हो रहा है और न ही राजनैतिक रूप से वह समर्थ है जबकि यह तथ्य किसी से छिपे नहीं हैं कि जैनों की संख्या सरकारी गणना के अनुसार भी सचमुच अल्प है, न केवल केन्द्र में वरन् प्रान्तों में भी कल्याण मंत्रालय भारत सरकार की 1998 में घोषित जनगणना के अनुसार जैनों की संख्या मात्र 33,32,469 है जबकि ईसाई 1,88,95,917, सिक्ख 1,62,43,252, बौद्ध 63,23,412, मुस्लिम 96, 28, 4321 और पारसी मात्र 76,282 अर्थात् जैन संख्या में दूसरे नम्बर पर अल्प हैं, पारसियों से कुछ ज्यादा मुस्लिमों, सिक्खों, ईसाईयों से बहुत कम, फिर भी अल्पसंख्यक घोषित नहीं, संविधान में भी अल्पसंख्यकों को भाषायी और धार्मिक कह कर अव्याख्यायित छोड़ दिया गया। यह निर्विवाद है कि जैनधर्म एक स्वतंत्र धर्म है वह हिन्दू धर्म का अंग किसी दृष्टि से नहीं। इनमें आधारभूत अन्तर यह हैं कि हिन्दूधर्म में सब कुछ कर्ता धर्ता ईश्वर होता है और जैनधर्म में इस तरह का कर्ता ईश्वर जैसी कोई सत्ता होती ही है, यह आत्मवादी धर्म है, एक प्रवृत्तिमार्गी है। तो दूसरा निवृत्तिमार्गी । हिन्दूधर्म का आधार वेद है जबकि जैनधर्म में वेदों का अस्तित्व ही नहीं, यह वेदों को अलौकिक भी नहीं मानता। इसके अपने इतिहास, भूगोल, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, साहित्य और विधि विधान हैं। For Private & Personal Use Only 'दिसम्बर 2005 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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