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________________ के प्रतीक पट अंकित हैं और मध्य पृष्ठभूमि में कल्पवृक्ष अंकन हुआ है। स्तभों के अलंकरण स्वरूप अष्ट मातृकाओं उत्कीर्ण है। अम्बिका कुबेर के लक्षण-संस्कारों से युक्त एक और अप्सराओं की मूर्तियां भी यहाँ अंकित हैं। विद्यादेवी अन्य मूर्ति निकट ही अवस्थित है किन्तु उसमें सुरा-भाण्ड और शासनदेवी के रूप में अंबिका और चक्रेश्वरी के साथ और नारी गोद में बालक अंकित नहीं है, संभव है यह गोमेध, कुबेर, अग्नि, क्षेत्रपाल आदि देवताओं की स्वतन्त्र प्रतिमा कुबेर से मिलते जुलते सर्वाग्ह यक्ष और ऋद्धि देवी प्रतिमायें भी यहाँ अधिष्ठित हैं। अधिकांश मूर्तियां सत्रहवीं की हो। इसके पादपीठ में चषक, थैली या घट के समान -अठारहवीं सदी में मंदिरों के पुर्ननिर्माण और जीर्णोद्धार के अष्ट निधियों का चित्रण है। समय, दीवारों और द्वार के सिर दलों में अव्यवस्थित तरीके गंधकटी के मध्य प्रदक्षिणा-पथ में कबेर अंबिका से लगा दी गई है। यहाँ तक कि कूप भित्तियों पर भी अनेक मूर्तियों के निकट दो ऐसे चित्र फलक उपलब्ध हैं, जिन्हें मूर्ति पट्टिकायें विजड़ित हैं। पाकर यह तीर्थ कृतकृत्य है। इसमें से एक फलक पर बीना क्षेत्र के अहाते में अवस्थित सतीचौरा स्वभावतः बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के गर्भकल्याणक के दृश्य दर्शकों में जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है। पुरातात्विक दृष्टि से अंकित हैं। तीर्थंकर की माता पद्मादेवी शैयाशायी है। भले ही इसका कोई महत्त्व न हो,किन्तु यह निष्कर्ष असंगत दिक्कुमारिकायें उनकी चरण सेवा और परिचर्या में लगी हैं। न होगा कि किसी समय स्थानीय जैन समाज में सती प्रथा फलक के शीर्ष भाग पर पद्मासीन तीर्थंकर मूर्ति विराजमान प्रचलित रही होगी, ग्रामवासियों से पता चला कि यहाँ लगभग है और पादपीठ पर कच्छप लांछन अंकित है। इसी प्रकार, 150 वर्ष पूर्व स्थानीय जैन मोदी परिवार की एक महिला दूसरे फलक में तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के पिता महाराजा सती हुई थी। उस परिवार के वंशधर आज भी गांव में सुमित्र शैयासीन है। उनके सिर पर विष्णु और बलराम के विद्यमान हैं। समान फणावली है। देव देवियां नृत्य गान कर भगवान् के तीर्थ क्षेत्र के बाहर बीना गांव में बिखरी हुई पुरा संपदा जन्म का आनंद मना रहे है। शीर्ष भाग पर पूर्व फलक की में अनेक तीर्थंकर मूर्तियों के साथ गणेश, नाग, बारह, सूर्य, भांति पद्मासन में तीर्थंकर मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस चित्रफलक विष्णु और वामनावतार से संबंधित प्राचीन कलात्मक मूर्तियां की भ्रमवश श्री बलभद्र जैन ने पार्श्वनाथ तीर्थंकर की माता उपलब्ध हैं। ये मूर्तियां अटा,कोट, शंकर मंदिर,हरदौल चबूतरा, वामादेवी से संबंध मान लिया है। यह पुरुष अंकित है और पोरिया आदि स्थानों पर संकलित है। पोरिया चबूतरे के फणावली राजा सुमित्र के हरिवंशीय होने का प्रमाण प्रस्तुत संकलन में नाग-युगल वामनावतार और तीर्थंकरों की मूर्तियां करती है। इस प्रकार ये दोनों फलक भगवान् के माता-पिता आठवीं से ग्यारहवीं सदी के उत्कृष्ट कलात्मक नमूने हैं। से संबंध है। जैन मूर्तिकला में कल्याणक अंकन के ये ककोंट नाग युगल का अंकन कदाचित् जैन भास्कर्य है देवी अभूतपूर्व उदाहरण हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि बीना पद्मावती ककोंट नाग पर आसीन होती है, फणावली युक्त बारहा का स्वतंत्र चेता कलाकर शास्त्रीय मर्यादाओं का पालन नाग द्वय के बीच वश्चिक का अंकन ककोंटक सर्प वर्ग का करते हुये भी अपनी प्रतिभा और क्षमता के अनुरूप,नवीन सूचक है, वामनावतार की अंलकृत समभंग प्रतिमा की कलाकृतियों के अंकन में कहीं पीछे नहीं रहा है। प्रभावली अनेक पार्श्वचरों के चित्रण से युक्त है, यह दुर्लभ बीना-बारहा के परवर्ती देव मंडल में शासन देवताओं मूर्ति हमें खजुराहो के वामन मंदिर की मुख्य मूर्ति का स्मरण के साथ नवग्रह, दिक्पाल, दिक्कुमारिकायें, मातृकायें और दिलाती है। पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की आकर्षक विद्यादेवियाँ उत्कीर्ण हैं। नवग्रह शिलापट्ट मंदिरों के गर्भगृह खड्गासन मूर्तियां खण्डित हैं, खण्डित तीर्थंकर मूर्तियों का द्वार में स्थापित रहे होगें, किन्तु वे अब विपर्यस्त अवस्था में एक छोटा सा संग्रहालय बीना जैन तीर्थ के अहाते में गंधकुटी हैं। एक पंक्तिबद्ध नवग्रह शिलापट्ट अंकन के मध्य शंख- के नीचे स्थापित है, जिसमें मड़खेरा, ईसुरपुर रानीताल आदि चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुये सूर्य विराजमान है,सूर्य की निकटवर्ती गांवों से तथा सुखचैन नदी से प्राप्त तेरहवीं से स्वतंत्र मूर्तियां भी यहाँ मिलती हैं। इसी प्रकार दस दिक्पालों सत्रहवीं सदी के नमूने उपलब्ध हैं। की स्वतन्त्र मूर्तियां भी प्रभूत मात्रा में उत्कीर्ण हैं, द्वार के बिन्ध्य उपत्यका पर अवस्थित जिनालयों की वन्दना एक शीर्ष भाग पर चार लोकपाल सपत्तीक अंकित है। करते हुये आचार्य मदनकीर्ति (1228 ईस्वी ) ने इन्द्र पूजित मामा-भनेज मंदिर के द्वार पर विद्यादेवी सरस्वती का सुन्दर कहा है -दिसम्बर 2005 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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