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________________ गतांक से आगे ऐलक-चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है? यह तो हुई संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों की बात । अब हम इसकी पुष्टि में भाषा ग्रन्थों के भी तीन प्रमाण लिख देते हैं1. पं. बुधजन जी कृत तत्त्वार्थबोध (पृ. 159) में लिखा है अईलक महापुनीत, केश लौंचे निज करतैं । ले करपात्र अहार, बैठि इक श्रावक घरतें ॥ 82 ॥ 2. दौलत क्रिया कोश में लिखा है कि क्षुल्लक, . जीमें पात्र मंझार, ऐलि करें करपात्र अहार । मुनिवर ऊभा लेइ अहार, ऐलि अर्यका बैठा सार ॥ 927॥ - प्रतिमावर्णनाधिकार 3. पं. भूषणदास जी कृत पार्श्वपुराण मेंयह क्षुल्लक श्रावक की रीत, दूजो ऐलक अधिक पुनीत । जाके एक कमर कौपीन, हाथ कमण्डल पीछी लीन ॥ 197 ॥ विधिसों बैठि लेहि आहार पाणिपात्र आगम अनुसार । करें केस लुंचन अतिधीर, शीत धाम सब सहै शरीर ॥ 198 ॥ पाणिपात्र आहार, करै जलांजुलि जोड़ मुनि । खडो रहै तिहिवार, भक्तिरहित भोजन तजै ॥ 199 ॥ एक हाथ में ग्रास धरि, एक हाथसों लेय। श्रावक के घर आयके, ऐलक असन करेय ॥ 200 ॥ यह ग्यारह प्रतिमा कथन, लिख्यो सिधांत निहार। और प्रश्न बाकी रहे, अब तिनि को अधिकार ॥ 9वाँ अधिकार ॥ तीनों ही भाषा ग्रन्थों में ऐलक के लिए बैठे भोजन लिखा है। साथ ही दौलत क्रिया कोश में आर्यिका के लिए भी बैठे भोजन करने का विधान किया है। भगवती आराधना अध्याय 1 गाथा 83 की वचनिका में पण्डित प्रवर सदासुख ने भी आर्यिका के लिए बैठकर आहार ग्रहण करने की बात लिखी है। आर्यिका उपचार से महाव्रती होती हैं, जबकि क्षुल्लक - ऐलक पंचम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती ही होता है। ऐसी हालत में जब आर्यिका तक बैठे भोजन करती हैं तो क्षुल्लक - ऐलक खड़े भोजन कैसे कर सकता है? यह तो साधारण बुद्धि जीवी भी सोच सकता है इसीलिए साधु के Jain Education International स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया 28 मूलगुणों में ' स्थिति भोजन' नाम का एक मूलगुण बताया है, अन्य के नहीं। स्त्रियों में क्षुल्लिका और आर्यिका पद ही होता है. ऐलिका पद नहीं । पं. भूधरदास जी ने एक नई बात और लिखी है। वे लिखते हैं कि- मुनि जो पाणिपात्र में आहार करते हैं वे अंजुली जोड़कर करते हैं परन्तु ऐलक अंजुली जोड़कर नहीं करते। वह तो एक हाथ पर धरे हुए ग्रास को अपने दूसरे हाथ से उठा कर खाता है। न मालूम भूधरदास जी ने यह बात किस आधार पर लिखी है। सम्भव है कि यह ठीक हो क्योंकि इस विषय के ग्रन्थों में सामान्यरूप से पाणिपात्र आहार का उल्लेख मिलता है। दोनों ही तरह को पाणिपात्र कह सकते हैं। विद्वानों को इसकी खोज करनी चाहिए। पं. भूधरदास जो इस कथन को सिद्धांत के अनुसार लिखा बताते हैं । यहाँ पर एक आक्षेप का समाधान करना अनुचित न होगा, कुछ भाई कहते हैं कि "अगर ऐलक मुनि की तरह खड़े होकर करते हैं तो एक ऊँची क्रिया करते हैं, इसमें बुराई क्या हुई " इसके उत्तर में पहले यह जान लेना जरूरी कि मुनि खड़े भोजन क्यों करते हैं। इसका कारण पद्मनन्दि पंच विशंतिका में लिखा है कि यावन्मे स्थितिभोजनेऽस्ति दृढ़ता पाण्योश्च संयोजने, भुञ्चेतावदहं रहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यतेः । कायेऽप्यस्पृहचेतसोन्त्यविधिषु प्रोल्लासिनः सन्मुने, ह्येतेन दिविस्थितिर्न नरके संपद्यते तद्विना ॥ 43अ. ॥ अर्थ : जब तक मेरे खड़ा रहकर भोजन करने और दोनों हाथों के मिलाने में दृढ़ता रहेगी तभी तक आहार करूँगा अन्यथा त्याग करूँगा ऐसी यति की प्रतिज्ञा होती है । इसी प्रतिज्ञा को दिखाने के लिए मुनिजन दोनों हाथ की अंजुलि मिलाये हुये खड़े रहकर भोजन करते हैं। वरना इससे कोई शरीर में निःस्पृही और समाधिमरण में उत्साही मुनि को स्वर्ग नहीं मिलता और न उसके बिना नरक ही । निम्न श्लोकों में सोमदेव ने भी ऐसा ही कहा है स्वर्गाय स्थितेर्भुक्तिर्न श्वभ्रयास्थितेः पुनः । किन्तु संयमिलोकेऽस्मिन् सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥ -दिसम्बर 2005 जिनभाषित 15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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