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________________ विसर्जनपाठ के इस श्लोक में तो देवों का आह्वान उनकी भक्ति पूर्वक पूजा करने की दृष्टि से बताया गया है। यह कैसे ? उत्तर : इसमें “ते मयाभ्यर्चिता भक्त्या " पाठ ही गलत है वह बदला हुआ है। प्राचीन अर्वाचीन अनेक हस्तलिखित गुटकों इस जगह शुद्ध पाठ "ते जिनाभ्यर्चनं कृत्वा " पाया जाता है। हमारे पास शेरगढ़, हिंडोली, बसवा, चांदखेड़ी से प्राप्त कुछ हस्तलिखित गुटके हैं उन सब में भी यही "ते जिनाभ्यर्चनं कृत्वा" शुद्ध और सुसंगत पाठ पाया है। यह शुद्ध पाठ रावजी सखाराम दोशी शोलापुर द्वारा प्रकाशित "शासनदेव पूजा के अनुकूल अभिप्राय" नामक ट्रेक्ट के पृ. ७१ और ७४ पर पाया जाता है इस पाठ के विषय में वहाँ पं. बंशीधरजी शास्त्री शोलापुर वालों ने लिखा है कि- "यह पाठ इधर के पूजापाठों में व प्रतिष्ठा पाठों में तथा पुरानी हस्तलिखित प्रतियों में मिलता है- यह पाठ सिद्धांत अनुकूल और शब्दशास्त्र से भी निर्दोष है।" हमारे पास के एक गुटके में यह विसर्जन श्लोक लघु अभिषेक पाठ का बताया गया है वहाँ लिखा है 14 दिसम्बर 2005 जिनभाषित -आहुता ये पुरा देवा अब्धभागाा यथाक्रमं । ते जिनाभ्यर्चनं कृत्वा सर्वे यान्तु यथास्थितं ॥ Jain Education International इति स्वस्थानं गच्छ गच्छ पुष्पाक्षत वर्षेण सर्वामर विसर्जनं । अभिषेकः समाप्तः (शायद यह अभयनंदि कृत लघुस्नपन ( श्रेयोविधान) का विसर्जन श्लोक हो किन्तु मुद्रित लघुस्नपन में यह श्लोक नहीं पाया जाता है सम्भवत: छूट गया हो) इस शुद्ध श्लोक का सही अर्थ इस प्रकार है- "जिन देवों का पहले आह्वान किया गया था और जिन्होंने (अर्हत्पूजार्थ) यथाक्रम से अपना-अपना पूजाद्रव्य भाग प्राप्त कर लिया वे सब जिन-पूजा करके अपने-अपने स्थान को जावें । " इस कथन से सुस्पष्ट है कि इन्द्र द्वारा देवगण जिनेन्द्र की पूजा के लिए ही बुलाये जाते हैं। स्वयं उन देवों की पूजा के लिये नहीं और उन देवों को पूजाद्रव्य भी जिन पूजा के लिये ही अर्पण किया जाता है स्वयं उनकी पूजा के लिए नहीं । भगवान् पद्मप्रभ जी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र की कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री धरण नाम के राजा राज्य करते थे। उसकी सुसीमा नाम की रानी थी। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन उसने अपराजित विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। जब सुमतिनाथ भगवान् की तीर्थ परम्परा के नब्बे हजार करोड़ सागर बीत गये तब भगवान् पद्मप्रभ उत्पन्न हुए थे। तीस लाख पूर्व उनकी आयु थी, दो सौ पचास धनुष ऊँचा शरीर था। उनकी | आयु का जब एक चौथाई बीत चुका तब उन्होंने राज्य प्राप्त किया। जब उनकी आयु सोलह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की रह गई तब किसी एक दिन पद्मप्रभ महाराज राजमहल में सुखपूर्वक बैठे हुए थे कि उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके प्रिय हाथी का अस्वस्थता बढ़ने से अचानक प्राणान्त हो गया है। इस घटना से जीवन की क्षणभंगुरता जानकर जातिस्मरण से | अपने पूर्व भवों का ज्ञान प्राप्त कर वे संसार से विरक्त हो गये और मनोहर नामक वन में पहुँचकर बेला का नियम लेकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन संध्या काल में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन पद्मप्रभ स्वामी वर्धमान नगर में प्रविष्ट हुए। वहाँ राजा सोमदत्त ने उन्हें आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इस तरह तपश्चरण करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छ: माह बिताकर अपने ही दीक्षा वन में शिरीष वृक्ष के नीचे वह ध्यानलीन हुए। तदनन्तर घातिया कर्मों का नाश कर चैत्र शुक्ल पौर्णमासी के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् पद्मप्रभ के समवशरण की रचना हुई, जिसमें तीन लाख तीस हजार मुनि, चार लाख बीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इस प्रकार धर्मोपदेश देते हुए आर्य क्षेत्रों में विहार कर | भगवान् सम्मेदशिखर पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक माह का योग निरोध कर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया। तदनन्तर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन शाम के समय अघातिया कर्मों का नाश कर निर्वाण प्राप्त किया। मुनि श्री समता सागर - कृत ' शलाका पुरुष' से साभार क्रमशः महावीर जयन्ती स्मारिका १९७५ प्रकाशक - राजस्थान जैन सभा, जयपुर) से साभार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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