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दूसरे लोगों में जिस प्रकार परस्पर जयगोपाल, जय श्रीकृष्ण, जयसीताराम और जयरामजी इत्यादि वचनव्यवहार चलता है, उसी तरह जैनियों में 'जयजिनेन्द्र' का व्यवहार प्रचलित है । परन्तु कुछ लोगों को इस व्यवहार में अर्वाचीनता की गन्ध आती है और इसलिए वे इस सुन्दर, सारगर्भित तथा सद्भाव- द्योतक वचन-व्यवहार को उठाकर उसकी जगह 'जुहारु' तथा 'इच्छाकार' का प्रचार करना चाहते हैं। पाँच महीने के करीब हुए, भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति जी ने अपना ऐसा ही मंतव्य प्रकट किया था, जो १७ दिसम्बर सन् १९२५ के जैनमित्र अंक नं.८ में, 'अवश्य बाँचने योग्य' शीर्षक के साथ में प्रकाशित हुआ है, और ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने उसे पढ़कर 'जुहारु' पर प्राचीनता की अपनी मुहर भी लगाई थी। मैं चाहता था कि उस समय उसपर कुछ लिखूँ, परन्तु अनवकाश ने वैसा नहीं करने दिया । हालके जैनमित्र अंक नं. २७ में इसी विषय का प्रश्न रामपुर स्टेट के भाई लक्ष्मीप्रसाद जी की ओर से उपस्थित किया गया है और उससे मालूम होता है कि ऐलक पन्नालालजी भी 'जयजिनेन्द्र' का निषेध करते हैं और उसकी → जगह 'जुहारु' का उपदेश देते हैं। ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी
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जयजिनेन्द्र, जुहारु और इच्छाकार
ने उक्त प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि 'परस्पर जुहारु करने का ही कथन ठीक है और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है। कि आप भी 'जयजिनेन्द्र' का निषेध और उसके स्थान पर 'जुहारु' का विधान चाहते हैं । अतः आज इस विषयपर कुछ विचार करना ही उचित मालूम होता है और नीचे उसीका प्रयत्न किया जाता है।
रामपुरवाले भाई का वह प्रश्न इस प्रकार है : 'जैन समाज में जो 'जयजिनेन्द्र' का शब्द प्रचलित है और हर एक व्यक्ति एक दूसरे से समागम के समय जयजिनेन्द्र करता है। यहाँ पर जब श्री १०५ पूज्य ऐलक पन्नालाल जी महाराज पधारे, तो उन्होंने इसका निषेध किया कि इस तरह जिससे जयजिनेन्द्र कहा जाय वह जिनेन्द्र हो जाता है । इसलिए बजाय जयजिनेन्द्र के जुहारु करना चाहिये। क्योंकि यहाँ की समाज की समझ में यह बात न ठीक से आई है और न इसका अर्थ यह समझ में आता है इसलिये विद्वान् महोदय इसका जबाव दें।'
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स्व. पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार किया गया है, उसमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता। समझ में नहीं आता कि जिसे 'जयजिनेन्द्र' कहा जाता है वह कैसे जिनेन्द्र हो जाता है। क्योंकि लोकमें किसीको 'राम राम' या 'जय रामजी' कहने से वह 'राम' हो जाता अथवा समझा जाता है ? और पारस्परिक अभिवादन में 'जय गोपाल' या 'जय श्रीकृष्ण' शब्दों के उच्चारण से क्या कोई गोपाल या श्रीकृष्ण बन जाता अथवा उस पद को प्राप्त हो जाता है ? यदि ऐसा कुछ नहीं है, तो फिर परस्पर में 'जयजिनेन्द्र' कहने से ही कोई कैसे जिनेन्द्र हो जाता है, यह एक बहुत ही मोटी-सी बात है। कहनेवाले का अभिप्राय भी उस व्यक्तिविशेष को जिनेन्द्ररूप से सम्बोधन करने का नहीं होता, बल्कि उसके सम्बोधन का पद यदि होता है तो वह अलग होता है जैसे, भाईसाहब! जयजिनेन्द्र ! प्रेमीजी ! जयजिनेन्द्र, महाशय ! जयजिनेन्द्र, 'जयजिनेन्द्र' साहब ! जयजिनेन्द्र जी ! अजी जयजिनेन्द्र इत्यादि । ऐसी हालत में रामपुर के जैनसमाज की समझ में यदि ऐलक जी की उक्त बात नहीं आई और न 'जयजिनेन्द्र' शब्दोंपर से उन्हें वैसे अर्थका कुछ बोध ही हुआ, तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। निःसंदेह ऐलक जी की उक्त बात निरी बच्चों को बहकाने जैसी जान पड़ती है, युक्ति और आगम से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। मालूम नहीं ब्रह्मचारी जी ने उक्त प्रश्न के उत्तर में जो सिर्फ इतना ही लिख दिया कि 'परस्पर जुहारु करने का ही कथन ठीक है' उसमें उन्होंने ऐलकजी के हेतु को भी स्वीकार किया या कि नहीं ।
जहाँ तक मैं समझता हूँ ब्रह्मचारी जी के इस उत्तरमें उक्त हेतुका कोई आधार नहीं है, बल्कि उसका मूल कुछ दूसरा ही है, जो आगे चलकर मालूम होगा। हाँ, इतना जरूर कहना होगा कि उनका यह संक्षिप्त उत्तर प्रश्न का समाधान करनेके लिये पर्याप्त नहीं है।
'जयरामजी' और 'जय श्रीकृष्ण' का अर्थ जिस प्रकार 'रामजी की जय' और 'कृष्ण जी की जय' होता है, उसी प्रकार 'जयजिनेन्द्र' का भी एक अर्थ 'जिनेन्द्र की जय' होता है। इसी से कुछ भाई कभी-कभी 'जयजिनेन्द्रदेव की' ऐसा भी बोलते हुए देखे जाते हैं। हिन्दुओं में भी 'जयराम जी की' ऐसा बोला जाता है। सिक्ख - भाइयों ने भी इसी आशयको लेकर
इस प्रश्न में ऐलक जी के जिस हेतु का उल्लेख अपने व्यवहारका सामान्य मन्त्र 'वाहे गुरुकी फतह' रक्खा
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नवम्बर 2005 जिनभाषित
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