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है । इस अर्थ में, 'जयजिनेन्द्र' यह 'जयोऽस्तु जिनेन्द्रस्य' | जयघोष करने वाला वह भाई, व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप से
यह सूचित करता है कि तुम्हारे, मेरे अथवा विश्वभरके हृदयमें जिनेन्द्र व्याप्त हो जायें, उनके निर्मल गुण हमारे अन्तःकरणको जीत लेवें, सबों पर उनका प्रभाव अंकित हो जाय अथवा सिक्का बैठ जाय, और इस तरह सब लोग जिनेन्द्रके गुणोंमें । अनुरक्त होकर अपना आत्मकल्याण करने और अपने जीवनमार्ग को सुगम तथा प्रशस्त बनाने में समर्थ हो जायें। इससे 'जयजिनेन्द्र' में कितना सुन्दर भाव भरा है, कितनी उच्च कोटिकी उत्तम भावना संनिहित है और कैसी ललित विश्वप्रेमकी धारा उसमें से बह रही है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । ऐसी हालतमें क्या जयजिनेन्द्रका पारस्परिक व्यवहार उत्थापन किये जाने अथवा उठा देनेके योग्य हो सकता है ? कदापि नहीं। मुझे तो सच्चे हृदयसे उच्चारित होनेपर यह अपनी तथा दूसरोंकी शुद्धिका प्यारा मंत्र मालूम होता है और इसीलिये सबोंके द्वारा अच्छी तरहसे आराधना किये जानेके योग्य जान पड़ता है ।
शब्दों का हिन्दी रूप है। दूसरा अर्थ होता है 'जिनेन्द्र जयवन्त हों' और इस अर्थ में जयजिनेन्द्र को 'जयतु जिनेन्द्रः' का हिन्दी रूपान्तर समझना चाहिये । प्रायः इन्हीं दोनों अर्थों में 'जयजिनेन्द्र' वाक्यका व्यवहार होता है, और ये दोनों अर्थ एक ही आशयके द्योतक । इनके सिवाय, एक तीसरा, अर्थ भी हो सकता है जो पारस्परिक व्यवहारमें अभिप्रेत नहीं होता, किन्तु विशेष रूप से जिनेन्द्रकी स्तुति आदिके समय ग्राह्य होता है और वह यह कि 'हे जिनेन्द्र आप जयवन्त हों' । इस अर्थ में जयजिनेन्द्र को 'जय त्वं जिनेन्द्र' इन शब्दों का संक्षिप्त रूप कह सकते हैं। इस अर्थका भी वही आशय है जो ऊपरके दोनों अर्थोंका है। भेद केवल इतना ही है कि इसमें जिनेन्द्रदेव को सम्बोधन करके उनका जयघोष किया गया है और पहले दोनों अर्थों द्वारा बिना सम्बोधनके ही उनकी जय मनाई गई है। बात असल में एक ही है। इस तरह 'जयजिनेन्द्र' का उच्चारण बहुत कुछ सार्थक है । वह जिनेन्द्रकी स्मृतिको लिए हुए है, उनकी यादको ताजा करा देता है और जिनेन्द्रकी स्मृतिको स्वामी समन्तभद्रने क्लेशाम्बुधि से, दुखसमुद्र से, पार करने के लिये नौका के समान बताया है | इससे 'जयजिनेन्द्र' का उच्चारण मंगलमय होनेसे उपयोगी भी है। हम जितनी बार भी जिनेन्द्रका स्मरण करें उतना ही अच्छा है। हमें प्रत्येक सत्कार्य की आदिमें, सुव्यवस्था लाने अथवा सफलता प्राप्त करनेके लिये, जिनेन्द्रका, उसदेवताका, स्मरण करना चाहिये जो सम्पूर्ण दोषों से विमुक्त और गुणोंसे परिपूर्ण है। परस्परमें 'जयजिनेन्द्र' का व्यवहार इसका एक बहुत बड़ा साधन है। एक भाई जब दूसरे भाई को 'जयजिनेन्द्र' कहता है तो वह उसके द्वारा केवल जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण ही नहीं करता बल्कि दूसरे भाईको अपने साथ प्रेमके एक सूत्रमें बांधता है, उसे अपना बन्धु मानता है। कितने ही अंशोंमें उसे अभय प्रदान करता और अपनी सहायताका आश्वासन देता है, वह अपने और उसके मध्यकी खाईको एक प्रकारसे पाट देता है अथवा उसपर एक सुन्दर पुल खड़ा कर देता है। उसके जयघोषका यह अर्थ नहीं होता कि वह जिनेन्द्रका कुछ हित चाहता है या उनकी किसी अधूरी जयको पूरा करनेकी भावना करता है। जिनेन्द्र भगवान् तो स्वयं कृतकृत्य हैं, विजयी और जयवन्त हैं, वे अपने संपूर्ण कर्मशत्रुओंको जीत चुके, उनका कोई शत्रु नहीं और न विश्वभरमें उन्हें कुछ जीतना या करना बाकी रहा है, वे राग-द्वेषसे बिल्कुल रहित हैं और यह भी इच्छा नहीं रखते कि कोई उनका जयघोष करे, फिर भी उनका जो जयघोष किया जाता है वह दूसरे ही सदाशयको लिये हुए है और उसके द्वारा
8 नवम्बर 2005 जिनभाषित
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वास्तव में जयघोष करना जैनियों की प्रकृतिमें दाखिल है। उनका जन्म ही जयके लिये हुआ है, उनकी जन्मघुटी में जयका समावेश है, वे जयके उपासक हैं और जय ही उनका लक्ष्य है।
जिय-भय-जिय-उवसग्गे जिय-इंदिय-परिसहे जिय-कसाए । जिय-राय- दोस- मोहे जिय- सुह- दुक्खे णमंसामि ॥ !
अर्थात् जिन्होंने भयों को जीत लिया, उपसर्गोंको जीत लिया, इन्द्रियोंको जीत लिया, परीषहोंको जीत लिया और सुख-दुखको जीत लिया उन योगी- प्रवरोंको नमस्कार है ।
इसके सिवाय, जिस पूज्य देवताके नामपर उनका 'जैन' ऐसा नाम - संस्कार हुआ है वह भी 'जिन' है, और 'जिन' कहते हैं जीतनेवाले (विजेता) अथवा जयशीलको, जो कर्म - शत्रुओं को निर्मूल करके पूर्णरूपसे अपना आध्यात्मिक विकास करता है, वही 'जिन' कहलाता है। जिनके उपासक होने अथवा जिन-पदको प्राप्त करना सबोंको इष्ट होनेसे जैनियोंका भी लक्ष्य वही जय - आध्यात्मिक विजय पाना है अथवा उसी जयके उन्हें उपासक कहना चाहिये, जो भौतिक विषयसे बहुत ऊँचे दर्जे पर है और जिसके आगे भौतिक विजय हाथ बाँधे खड़ी रहती है। और इसलिये जयपूर्वक जिनेन्द्र शब्दका व्यवहार करना जैनियोंके लिये बहुत ही अनुकूल जान पड़ता । परन्तु खेद है कि आज जैनियोंने अपनी इस प्रकृतिको भुला दिया, वे अपने स्वरूपको भुलाकर सिंहसे गीदड़ बन गये, उन्हें अपने लक्ष्यका ध्यान नहीं रहा और इसीसे वे विजेता न रहकर विजित,
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