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क्षमा धर्म
मुनिश्री समतासागर जी क्रोध एक कषाय है, जो व्यक्ति को अपनी वास्तविक १. इच्छापूर्ति में बाधा पड़ना। स्थिति से विचिलत कर देती है। इस कषाय के आवेग में २. मनचाहा न होना। व्यक्ति विचारशून्य हो जाता है और हिताहित का विवेक ३. मानसिक अस्तव्यस्तता। खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। क्रोध को हम ४. शारीरिक अस्वस्थता। बारूद के समान विस्फोटक और रासायनिक गैस की तरह ५. तामसिक भोजन और मौसम आदि का प्रभाव। अत्यन्त ज्वलनशील पदार्थ मान सकते हैं। लकड़ी में लगने | ये ऐसे कारण हैं कि जिनके उपस्थित होने से व्यक्ति वाली आग जैसे दूसरों को जलाती है पर स्वयं लकड़ी को | को क्रोध आ ही जाता है। भी जलाती है, इसी तरह क्रोधी व्यक्ति दूसरों का अहित | इस क्रोध को जीतने के कुछ उपाय भी हैं। जैसे कि करता ही है, खुद अपना भी अहित कर लेता है। यदि किसी | हम स्थिति की सही समीक्षा करें कि हमारी या दूसरों की पर अंगारा फेंका जाये, तो दूसरे के जलने केसाथ फेंकनेवाले | इसमें कितनी गलती है। अपने दायित्व का बोध हो, थोड़ी का हाथ भी जलता है। इस तरह क्रोध का दुष्परिणाम परिवार | देर के लिए स्थान परिवर्तन कर लेना, तथा चुप रह जाना
और आसपास के लोग तो भोगते ही हैं, क्रोध करनेवाला आदि क्रोध के प्रसंगों को टालने के उपाय हैं। इस तरह यदि व्यक्ति स्वयं भी भोगता है। असल में अहं पर चोट लगते ही | हम करते हैं तो सहज ही क्रोध को जीता जा सकता है। क्रोध क्रोध भड़क जाता है। ऐसी स्थिति में वह कुछ भी करने को | को जीतना और क्षमा, शांति, समता का व्यवहार ही क्षमा तैयार हो जाता है। यदि उस समय वह कुछ न कर पाये, तो | धर्म है। यह धर्म कायरों का नहीं बल्कि वीरों का भूषण है। बदला लेने की फिराक में रहता है और यदि बदला न ले | प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर भी अपनी सहनशीलता, पाये तो बदले का भाव बैर बनकर भव-भवान्तर में भी नहीं सहिष्णुता या समता से विचलित नहीं होना ही क्षमा धर्म है। छूट पाता।
परिस्थितियाँ इंसान को मजबूर करती हैं। प्रतिकूलता में क्या कभी हमने विचार किया है कि क्रोध आता क्यों | उद्वेग/आवेग की स्थिति बनती है, पर इन सभी क्रोधोत्पत्ति है? सभी जानते हैं कि क्रोध अच्छी चीज नहीं है। इससे | के कारणों में अपने विचार और व्यवहार को संभालना समर्थ बचने में ही भलाई है, तब फिर जानते हुए भी प्राणी क्रोध | और साधक पुरुष के लिए ही संभव है। क्यों करता है? इस तरह का विचार करने पर जो कारण ज्ञात
चातुर्मास छिन्दवाड़ा, सन् २००५ हुए वे इस प्रकार हैं -
विनती
सुमेरचन्द जैन चेतन को क्षणभर याद रखा,
आकुल व्याकुल हो घिरा रहा, फिर तन सेवा में लीन रहा।
इस जग के मायाजालों में। इन्द्रिय सुख को ही सुख माना,
थकहार सभी जगजालों से, ___ बस उसमें ही तल्लीन रहा।
प्रभु शरण तुम्हारी आया हूँ। ज्यों-ज्यों तृष्णा को शान्त किया,
हो जाय शान्त तृष्णा ज्वाला, त्यों-त्यों तृष्णा बढ़ती जाती।
बस यही कामना लाया हूँ। यह अविरल धारा तृष्णा की,
हे शान्त सुधा छबि के धारक, न शान्त हुई न तृप्त हुई।
तुम सन्मति वीर कहाते हो। हो वशीभूत इस तृष्णा के,
मेरा मिथ्यापन दूर करो, नाना दु:ख झेले जीवन में।
तुम करुणा के भंडारी हो।
हनुमान कॉलोनी, गुना (म.प्र.)
6 नवम्बर 2005 जिनभाषित -
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