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________________ इच्छाकारं समाचारं संयमाऽसंयमस्थितः । विशुद्धवृत्तिभिः सार्द्धम् विदधाति प्रियंवदः ॥ यह पद्य उत्कृष्ट श्रावक की चर्या का कथन करते हुए मध्य में दिया गया है - इससे पहले तथा पिछले दोनों पद्यों में 'उत्कृष्ट श्रावक' का उल्लेख है और इसलिए इस पद्य में प्रयुक्त हुए ‘संयमासंयमस्थितः ' पद का वाच्य 'उत्कृष्ट श्रावक' जान पड़ता है। उसी के लिए इस पद्य में यह बतलाया गया है कि वह विशुद्धवृत्तिवालों के साथ 'इच्छाकार' नाम के समाचार का व्यवहार करे। उत्कृष्ट श्रावक की दृष्टि से विशुद्ध-वृत्तिवाले मुनि हो सकते हैं। पं. कल्लप्पा भरमप्पा निटवे ने भी इस पद्य के मराठी अनुवाद में 'विशुद्धवृत्तिभिः' पद से उन्हीं का आशय व्यक्त किया है। ज्यादासे-ज्यादा इस पद के द्वारा क्षुल्लक - ऐलक का भी ग्रहण किया जा सकता है और इस तरह यह कहा जा सकता है कि अमितगति आचार्य ने इस पद्य के द्वारा उत्कृष्ट श्रावकों के लिए मुनियों के प्रति, अथवा परस्पर में भी, 'इच्छामि' कहने का विधान किया है । परन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि जो लोग विशुद्ध-वृत्ति के धारक न होकर साधारण गृहस्थ जैनी हैं - अव्रती अथवा पाक्षिक श्रावक हैं- उनके साथ भी इच्छाकार के व्यवहार का वैसा होने की इच्छा आदि को व्यक्त करने का विधान किया गया है। इसतरह तीन आचार्यों के वाक्यों से यह स्पष्ट है कि ‘इच्छाकार नाम के समाचार का विधान प्रायः क्षुल्लकों अथवा ११वीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकों के लिए है- साधारण गृहस्थ उसके अधिकारी तथा पात्र नहीं हैं।' जान पड़ता है यही वजह है, जो समाज में इच्छाकार का व्यवहार इतना अधिक अप्रचलित है अथवा यों कहिये कि समाज अपने व्यवहार में उससे परिचित नहीं है और इसीलिये सर्वसाधारण जैनियों में अब इच्छाकार के सर्वत्र व्यवहार की प्रेरणा करना कहाँ तक युक्तिसंगत तथा अभिवांछनीय हो सकता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। हाँ, उत्कृष्ट श्रावक परस्पर में इच्छाकार का व्यवहार करें तो वह ठीक है, उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं और न उससे जयजिनेन्द्र की सर्वमान्यता में कोई अन्तर पड़ता है। यहाँ पर मैं एक वाक्य और भी प्रकट कर देना उचित समझता हूँ और वह १३वीं शताब्दी के विद्वान् पं. आशाधर जी के सागारधर्मामृत का निम्न वाक्य है स्वपाणिपात्र एवात्ति, संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते ॥ ७-४९ ॥ 12 नवम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International यह पद्य ११वीं प्रतिमा-धारक उत्कृष्ट- श्रावक की चर्या का कथन करते हुये दिया गया और इसके उत्तरार्ध में यह बतलाया गया है कि सब आपस में 'इच्छाकार' नाम का समाचार का व्यवहार करते हैं । परन्तु वे 'सब' कौन? ग्यारह प्रतिमाओं के धारक संपूर्ण श्रावक या ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक वे तीनों प्रकार के उत्कृष्ट - श्रावक, जिनके शा जी ने 'एक भिक्षानियम', 'अनेकभिक्षानियम' और 'आर्य' ऐसे नाम दिये हैं? प्रकरण को देखते तथा उक्त आचार्यवाक्यों की रोशनी में इस पद्य के उत्तरार्ध को पढ़ते हुए यह मालूम होता है कि 'सर्वे' पद का वाच्य ११वीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट - श्रावक समूह होना चाहिये । परन्तु आशाधर जी ने इस ग्रन्थ पर स्वयं टीका भी लिखी है और इसलिये उन्होंने इस पद का जो अर्थ दिया हो वही मान्य हो सकता है । माणिकचन्द्रग्रन्थमाला में वह टीका जिस रूपसे मुद्रित हुई है उसमें इस पद का अर्थ 'एकदशाऽपि श्रावकाः ' दिया है - अर्थात्, ग्यारह प्रतिमाओं के धारक श्रावकों को 'सर्वे' पद का वाच्य ठहराया है। हो सकता है कि यह पाठ कुछ अशुद्ध हो और 'एकादशमस्था:' आदि ऐसे ही किसी पाठ की जगह लिख गया अथवा छप गया हो, जिसका अर्थ ग्यारह प्रतिमा न होकर ग्यारहवीं प्रतिमा होता हो। परन्तु यदि यही पाठ ठीक है और पं. आशाधर जी ने अपने पद का ऐसा ही अर्थ किया है तो कहना होगा कि पं. आशाधरजी ने प्रतिमाधारी सभी नैष्ठिक श्रावकों के लिये परस्पर इच्छाकार का विधान किया है और उनके इस कथन से एक क्षुल्लक तथा ऐलक को भी प्रथम प्रतिमाधारी श्रावकों के लिए परस्पर इच्छाकार का विधान किया है और उनके इस कथन से एक क्षुल्लक तथा ऐलक को भी प्रथम प्रतिमाधारी श्रावक को 'इच्छामि' कहना चाहिये। ऐसी हालत में आपका यह विधान कौन-से आचार्य-वाक्य के अनुसार है यह कुछ मालूम नहीं होता । परन्तु वह किसी आचार्य वाक्य के अनुसार हो या न हो, इसमें सन्देह नहीं कि आपका यह विधान नैष्ठिक (प्रतिमाधारी) श्रावकों के लिये है-अव्रती आदि साधारण गृहस्थों अथवा पाक्षिक श्रावकों के लिए नहीं। और समाज में अधिकांश संख्या साधारण गृहस्थों तथा पाक्षिक-श्रावकों की ही पाई जाती है, प्रतिमाधारी श्रावक बहुत ही थोड़े हैं, उनकी संख्या इनी-गिनी हैं और इसलिये सर्वसाधारण जैनियों को परस्पर में 'इच्छामि' कहने के लिये प्रेरित करना आशाधरजी के इस वाक्य के भी अनुकूल मालूम नहीं होता। उनके कथनानुसार प्रतिमाधारी श्रावकों के लिये ही यह विधि होनी चाहिये-दूसरे गृहस्थ इसके अधिकारी नहीं हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524302
Book TitleJinabhashita 2005 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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