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________________ है कि भगवान् महावीरके समयमें भी जुहारुका प्रचार था? | सबोंको सच्चे हृदयसे परस्परमें 'जयजिनेन्द्र' का व्यवहार अथवा केवल संस्कृत-प्राकृतके पद्योंमें निबद्ध हो जानेसे ही | करना चाहिये। 'जुहारु' को प्राचीनताकी पदवी प्राप्त हो गई है? यदि ऐसा है रही 'इच्छाकार' की बात, इच्छाकार 'इच्छामि' ऐसा तब तो 'जय जिनेन्द्र' के लिये बहुत बड़ा द्वार खुला है। और | उच्चारण करनेको कहते हैं। और 'इच्छामि' का अर्थ होता सैकड़ों अच्छे-से-अच्छे पद्य पेश किये जा सकते हैं। इसके | है-इच्छा करता हूँ या चाहता हूँ। परन्तु किस बातकी इच्छा सिवाय, यदि मान भी लिया जाय कि 'जय जिनेन्द्र' का | करता हूँ अथवा क्या चाहता हूँ यह इस शब्दोच्चारणपरसे रिवाज जुहारु की अपेक्षा प्राचीन न होकर अर्वाचीन है तो | कुछ मालूम नहीं होता। हो सकता है कि जिस व्यक्तिइतनेपरसे ही क्या हो गया? क्या प्राचीन न होनेपर उसकी | विशेष के प्रति यह शब्दोचारण किया जाय उसके व्यक्तित्वकी समीचीनता नष्ट हो गई? वह अच्छा, श्रेष्ठ, सच्चा और | इच्छा करना, उसके पदस्थ या धार्मिक जीवनको चाहना, समुचित व्यवहार नहीं रहा? और क्या प्राचीन सभी प्रवृत्तियाँ | सराहना अथवा वैसे होनेकी वांछा करना ही उसके द्वारा उपादेय होती हैं? संसारी जीवोंकी प्रवृत्तियाँ अनादि कालसे | अभीष्ट हो। परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि यह मिथ्यात्वकी ओर हैं-सम्यक्त्वकी प्राप्ति उन्हें बादको होती | शब्द समाजके पारस्परिक व्यवहार में इतना अधिक है! क्या मिथ्यात्व-प्रवृत्तिके प्राचीन होनेसे ही उसे नहीं छोड़ना | अप्रचलित है कि उसकी स्थिति पर से यह शंका पैदा हुए चाहिये अथवा सम्यक्त्वको नहीं ग्रहण करना चाहिये? यदि | बिना नहीं रहती कि वह कभी सर्वसाधारण जैनियोंके ऐसा कुछ नहीं है, बल्कि प्राचीनतापर समीचीनताको अधिक | पारस्परिक व्यवहारका एक सामान्य मंत्र रहा है या कि नहीं। महत्त्व प्राप्त है, पुरानी प्रवृत्ति उपयुक्त न होने अथवा देश- | अस्तु, इस विषयमें जब प्राचीन साहित्यको टटोला जाता है कालानुसार उपयुक्त न रहनेपर, छोड़ी जा सकती है और | तो सोमदेवसूरिके 'यशस्तिलक' ग्रन्थ पर से, जो कि शक उसकी जगह दूसरी अनुकूल तथा हितरूप-प्रवृत्ति ग्रहण की | सम्वत् ८८१का बना हुआ है, यह मालूम होता है कि जा सकती है-रिवाज कोई अटल सिद्धान्त नहीं होता-तो | 'इच्छाकार' का विधान क्षुल्लक-क्षुल्लक के लिए है-अर्थात् फिर 'जयजिनेन्द्र' पर आपत्ति कैसी? और यह कोरी तथा | एक क्षुल्लक (११वीं प्रतिमाधारक श्रावक) दूसरे क्षुल्लकको कल्पित प्राचीनताका मोह कैसा? जैनियोंके लिये 'जयजिनेन्द्र' | 'इच्छामि' कहे-दूसरे व्रती श्रावकों के लिए उसका विधान 1 का व्यवहार एक समीचीन व्यवहार है, वर्तमान देश-काल | नहीं, उनके लिए मात्र विनय-क्रिया कही गई है। यथा -- भी उसे चाहता है और इसलिये उसका विरोध करना अनुचित अर्हद्रूपे नमोऽस्तु स्याद्विरतौ विनयक्रिया। है। इस व्यवहारसे जैनियोंके सम्यक्त्वमें कोई बाधा नहीं अन्योऽन्यक्षुल्लके चाहमिच्छाकारवचः सदा॥ आती, उनके व्रतोंमें भी कोई दूषण नहीं लगता। और जैनियोंके इन्द्रनन्दि-आचार्य-प्रणीत 'नीतिसार' के निम्न वाक्यसे लिये वे संपूर्ण लौकिक विधियाँ प्रमाण कही गई हैं जिनसे | भी इसी आशयकी अभिव्यक्ति तथा पुष्टि होती हैउनके सम्यक्त्वको हानि न पहुँचती हो या उनके व्रतोंमें कोई निर्ग्रन्थानां नमोऽस्तु स्यादार्यिकाणां च वन्दना। प्रकारका दोष न लगता हो। जैसा कि श्रीसोमदेवसूरिके निम्न श्रावकस्योत्तमस्योच्चैरिच्छाकारोऽभिधीयते॥ वाक्यसे प्रकट है इसमें क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग न करके उसे 'उत्तम सर्व एव हि जैनानांप्रमाणंलौकिको विधिः । श्रावक' तथा 'उच्च श्रावक' ऐसे पर्याय-नामोंसे उल्लिखित यत्र सम्यक्त्व-हानिर्न यत्र न व्रत-दूषणम्॥ किया गया है। बात एक ही है, क्योंकि रत्नकरण्डश्रावकाचारादि यशस्तिलक ग्रन्थों में 'उत्कृष्ट' तथा 'उत्तम' श्रावक की संज्ञा ११वीं इस दृष्टिसे भी जयजिनेन्द्र का व्यवहार उत्थापन | प्रतिमावाले श्रावकको दी गई है। जिसके आजकल 'क्षुल्लक' किये जाने के योग्य नहीं है- अर्वाचीन मानलेनेपर भी उसका | और 'ऐलक' ऐसे दो भेद किये जाते हैं और इसलिए क्षुल्लकनिषेध नहीं किया जा सकता। वह जैनियोंके लिए एक सुन्दर, | ऐलक दोनों के लिए इच्छाकारका विधान है-दूसरे श्रावकों , श्रेष्ठ और समीचीन व्यवहार होनेकी क्षमता रखता है। जुहारु' | के लिए नहीं, यह इस पद से स्पष्ट जाना जाता है। की अपेक्षा 'जयजिनेन्द्र' का अर्थ भी बहुत कुछ स्पष्ट तथा अमितगति-आचार्य के 'उपासकाचार' में, जो कि व्यक्त है। मेरी रायमें 'जुहारु' का युग यदि किसी समय था | विक्रम की ११वीं शताब्दी का बना हआ है. एक पद्य निम्नप्रकार तो वह चला गया, अब 'जयजिनेन्द्र' का युग है। और इसलिए | से पाया जाता है नवम्बर 2005 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524302
Book TitleJinabhashita 2005 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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