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________________ चतुर्थगुणस्थान में शुद्धोपयोग नहीं होता पं. जवाहरलाल शास्त्री शंकाकार : श्री महावीर प्रसाद अजमेरा, जोधपुर | वाले को द्वादशांग पर श्रद्धा नहीं है। (देखें-मुख्तार ग्रन्थ शंका : चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग नहीं होता। इस | पृ.८३३) विषय में आचार्यों के प्रमाण पूर्वक सिद्ध कीजिए? । १२. शुद्धोपयोग सर्व परित्याग, परमोपेक्षा संयम, समाधान : नीचे सिद्ध किया जाता है कि शुद्धोपयोग वीतराग चारित्र, ये शुद्धोपयोग के पर्यायवाची नाम हैं। यथासातवें गुणस्थान से पूर्व नहीं होता, चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग | सर्वपरित्यागः परमोपेक्षासंयमो,वीतराग चारित्रं शुद्धोपयोग इति नहीं होता : यावदेकार्थः (प्रवचनसार पृ. ५५२ गा. २३०, शान्तिवीर दि. १. अप्रमत्तादि क्षीणकषायन्तगुणस्थानषट्के तार- | जैन संस्थान, महावीर जी) तम्येनशुद्धोपयोगेः। (प्र.सा.९, ता.वृ.२०) १३. शुद्धात्मानुभूतिलक्षण वीतराग चारित्र यानी __ अर्थ : सातवें से १२वें गुणस्थान तक तरतमता से | शुद्धात्मानुभूति तो वीतराग चारित्र का लक्षण है। वही प्र. शुद्धोपयोग है। १९२ शुद्धोपयोग लक्षणो भावमोक्षः (वही पृ. १९९ तथा २. यही बात प्रवचनसार ता.व. १८१ में लिखी है। | २०० गा. ८४ मोहेण व... की ता. वृ.) शुद्धोपयोग लक्षण को ३. यही बात वृहद् द्रव्यसंग्रह ३४ में लिखी है। रखनेवाला भावमोक्ष है। ४. यदि इसमें (ऊपर) तारतम्येन शब्द न होता तब १४. परमात्म प्रकाश में तो कहा है कि गृहस्थों के तो मान सकते थे कि चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग है। तारतम्य शुद्धोपयोग रूप परम धर्म है ही नहीं- गृहस्थानां... शुद्धोपयोग का अर्थ यही है कि सातवें से प्रारंभ होकर १२वें गुणस्थान परमधर्मस्य अवकाशोनास्ति। (२/१११) तक आगे-आगे विशद्ध होते हए अन्त में (१२ वें में) १५. यों है सकल संयम चरित्र, सुनिये स्वरूपाचरण शद्धोपयोग की पराकाष्ठा हो जाती है। अब (छहढाला)। इसप्रकार सकलसंयम चारित्र कहा। अब इसके बाद में स्वरूपाचरण (शुद्धोपयोग) सुनिए। अत: चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग का अंश भी संभव इसी पद्यांश से स्पष्ट है कि सकलसंयम के बाद ही नहीं है। प्रत्युत छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के शुभोपयोग की समानता भी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के नहीं हो सकती है। स्वरूपाचरण (शुद्धोपयोग) होता है अन्यथा वे सकल-संयम के पूर्व ही इसे कह देते। (प्र.नि., पृष्ठ ५९ पू. ज्ञानमती माताजी) इन पन्द्रह प्रमाणों से तथा अन्य भी प्रवचनसार टीका ५. चतुर्थ गुणस्थान में वस्तुतः शुद्धोपयोग नहीं होता। | में लिखित प्रमाणों से यह कांच के माफिक स्पष्ट सिद्ध है कि (पं.जगन्मोहनलाल जी, अध्यात्म अमृत कलश पृ.३७४, अव्रती सम्यग्दृष्टि को शुद्धोपयोग नहीं होता। यदि यह कहा मुमुक्षु मण्डल प्रकाशन) जाए कि धवला १३ में तो कहा कि धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान ६. चतुर्थ गुणस्थान यानी अविरत सम्यक्त्व में में विषयकृत भेद नहीं कहा, मात्र कालकृत भेद कहा, अत: शुद्धोपयोग होने का प्रश्न ही नहीं उठता। (पं. रतनचंद मुख्तार | धर्मध्यान में भी शुक्लध्यानवत् शुद्धोपयोग कहो ना? व्यक्तित्व, पृ. ८५१ तथा ८५२ तथा ८७१) तो इसका उत्तर यह है कि यदि विषय-साम्य से दोनों ७. वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग, स्वरूप/वीतराग चारित्र ध्यानों में साम्य (समानता) मानते हो तो फिर धर्मध्यान तथा को यहाँ शुद्धोपयोग कहा। (प्रवचसार ११ टीका) शुक्लध्यान के फल भी एक-समान मानने का अनुचित ८. देखें जैनसन्देश दि. ६.५.५८ पृष्ठ ४ ब्र. बाबू रतनचन्द प्रसंग आएगा। (२) समानकाल (एक-समय परिमाण) में मुख्तार, सहारनपुर तथा मुख्तार ग्रन्थ पृ. १२३ तुल्य गुणश्रेणि-निर्जरा मानने का अनुचित प्रसंग आएगा। ९. चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग नहीं होता। (जैन | (३) मिथ्यात्वी के द्वारा भी, कदाचित् सरागसंवेदनगजट २३.११.६७, पृ. ८) आत्मसंवेदन होने से, एक ही आत्मा विषयीकृत होने से १०. इसी प्रकार देखें जैन गजट १५.२.७३ पृ. ७ तथा | अन्य भी अनेक अनुचित प्रसंग आवेंगे। (४) शुद्ध: ४.१.६८ पृ.७। रागादिरहित: उपयोगः शुद्धोपयोगः यानी वीतराग उपयोग। ११. चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र मानने | वह सराग परिणति में कैसे? सराग-सम्यक्त्वी में कैसे ? अक्टूबर 2005 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524301
Book TitleJinabhashita 2005 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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