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चौथे गुणस्थान में जब चारित्र ही नहीं है (गो. जी. | वाले का औपशमिकभाव और बारहवें गुणस्थानवाले का १२) तथा वहां संयम नहीं है, इसीलिए वह असंयत कहलाता | क्षायिक भाव। ग्यारहवें गुणस्थान से नीचे वाले मुनि का है (गो. जी. २९)। चारित्रगुण की अपेक्षा वहाँ औदयिक | क्षयोपशमिक भाव शुद्धोपयोग है, यह कहना भी ठीक ही है। भाव है (ध. ५/२०१) । ऐसे चौथे गुणस्थानवर्ती गृहस्थी को | वह शुद्धोपयोग भी दो प्रकार का होता है, एक तो शुद्ध शुद्धोपयोग यानी चारित्रगुण की निर्मल पर्याय मानना हास्यास्पद धर्मध्यानात्मक, जो कि सप्तमगुणस्थानवर्ती मुनि को होता है ।
और दूसरा शुक्लध्यानात्मक शुद्धोपयोग, जो कि आठवें आदि समयसार तात्पर्यवृत्ति में जो कहा है कि 'तत्रं च यदा गुणस्थानों में होता है। कालादि लब्धिवशेन भव्यत्व शक्तेर्व्यक्तिर्भवति तदायं जीवः। दूसरी बात यह है कि उक्त प्रासंगिक टीका तात्पर्य सहज शुद्ध पारिणामिक भाव लक्षण निजपरमात्म द्रव्य सम्यक् | वृत्ति में ही आगे लिखा है कि 'शुद्धोपारिणामिक भाव विषये श्रद्धानज्ञानानुचरण पर्यायरूपेण परिणमति। तच्चपरिणमनं याभावना तद्रूप यदौपशमिकादि भावत्रयं तत् समस्तरागादि आगमभाषयौपशमिक क्षायोपशमिक क्षायिकं भावत्रयं भण्यते। | रहितत्वेन शुद्धोपादानकारणत्वात् मोक्षकारणं भवति।' अध्यात्म भाषया पुनः शुद्धात्माभिमुख-परिणाम: शुद्धोपयोग:
पारिणामिक भाव के विषय में जो भावना इत्यादि पर्यायसंज्ञां लभते। . . . (समयसारः : "दिट्ठी | (यानी शुद्धोपयोग) है, उस रूप जो औपशमिकादिक तीन सयंपि". . . गाथा ३४३ की ता. वृ. पृ. ३०३-३०५, अजमेर | भाव हैं, वे रागादि समस्त विकारों से रहित होने से, शुद्ध प्रकाशन)
उपादान के कारण होने से मोक्ष के कारण हैं। पूज्य आ. ज्ञानसागरीय अर्थ व विशेषार्थ
नोट : यहाँ तो शुद्धोपयोग, औपशमिकादि तीन भाव, टीकाकार ने यहाँ बतलाया है कि काल आदि लब्धि | रागादि सम्पूर्ण विभावों से रहित भाव ऐसा अत्यन्त स्पष्ट के बल से इस जीव की भव्यत्व-शक्ति की अभिव्यक्ति | कहा है। यानी यहाँ तो कांच के माफिक यह स्पष्ट करा दिया होती है, तभी यह जीव अपने परमात्व द्रव्य का समीचीन | है कि शुद्धोपयोग निश्चित ही रागादि सकल विकल्पों रहित श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान करने रूप में परिणमन करता है। उस | अर्थात् वीतराग है। परिणमन को ही आगम की भाषा में औपशमिक, क्षायिक | इसीतरह प्रकृत औपशमिक आदि भाव भी वीतराग व क्षायोपशमिक भाव नाम से कहा जाता है व अध्यात्म- | परिणतिमय हैं। अत: यह प्रकरण यह सिद्ध नहीं करता कि भाषा में वही शुद्धात्मा के अभिमुख परिणामस्वरूप शुद्धोपयोग । चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता है। परन्तु जहाँ वीतरागता नाम पाता है । टीकाकार के उल्लेख से चतुर्थ गुणस्थान में ही | प्रारंभ होती है वहाँ से होती है। अत: प्रकरण को अधूरा शुद्धोपयोग हो जाना सिद्ध होता है; क्योंकि वहाँ दर्शनमोह | पढ़कर ही अर्थ लगाना उचित नहीं। का क्षय क्षयोपशम या उपशम हो जाता है। तो फिर क्या तीसरी बात यह है कि भव्य मिथ्यात्वी अन्तर्मुहूर्त में चतुर्थ गुणस्थान में ही शुद्धोपयोग मान लेना चाहिये, क्योंकि | सातवाँ गुणस्थान प्राप्त कर सकता है। अत: उपर्युक्त प्रकरण तज्जन्य औपशमिकादिक भाव भी उस गणस्थान में होते ही शुद्धोपयोग (धर्मध्यानात्मक शुद्धोपयोग) आज भी संभव हैं? इसका उत्तर यह है कि यहाँ इस अध्यात्म-शास्त्र में | है। अत: चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग त्रिकाल भी नहीं होता, दर्शन-मोह व चारित्र मोह को पृथक-पृथक न लेकर मोह | यह सिद्ध है। नाम भूल का लिया गया है। फिर वह भूल चाहे दर्शन यदि यह कहा जाय कि अनन्तानुबन्धी के उदयाभाव संबंधी हो, या चारित्र संबंधी हो, भूल तो भूल ही है। इस / से होनेवाली शुद्धि को शुद्धोपयोग कैसे नहीं कहा जा सकता प्रकार वह भूल जिसके उपयोग में न हो वही सम्यग्दृष्टि, | तो इस विषय में हमारा निवेदन है कि ऐसा माना जाता है कि सम्यग्ज्ञानी यहाँ पर लिया गया है और जैसा स्वयं टीकाकार, अनन्तानुबन्धी विसंयोजक सम्यद्रष्टि के मिथ्यात्व में आने श्री जयसेनाचार्य ने भी अनेक स्थानों पर बतलाया है कि पर उस मिथ्यादृष्टि के असंख्यात् समयों तक अनन्तानुबंधी यहाँ पर पंचमगुणस्थान से ऊपरवाले को ही सम्यग्दृष्टि शब्द का उदय नहीं रहता। इसीतरह सभी सम्यग् मिथ्यादृष्टियों के से लिया गया है अर्थात् चारित्र-सहित सम्यग्दृष्टि को ही | भी अनंतानुबंधी का उदय नहीं होता। ऐसी स्थिति में उक्त । यहाँ पर सम्यग्दृष्टि माना गया है। अथवा वीतराग सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग मिथ्यादृष्टि जीवों के भी शुद्धोपयोग को ही यहाँ सम्यग्दृष्टि लिया है एवं उसका या स्वरूपाचरण मानने का अनुचित प्रसंग आएगा, जो कि औपशमिकादिकभाव शुद्धोपयोग है, अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान | आपको भी इष्ट नहीं है। इस प्रकार चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग 8 अक्टूबर 2005 जिनभाषित
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