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________________ सहजुप्पण्णं रूवं दटुं जो मण्णए ण मच्छरिओ। अस्संजदं ण वंदे वच्छविहीणोवि सो ण वंदिज्ज। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो॥२४॥ दण्णिवि होंति समाणा एगो विण संजदोहोदि॥२६॥ अर्थ : जो स्वाभाविक नग्न रूप को देखकर उसे अर्थ : असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिये नहीं मानता है, उल्टा ईर्ष्याभाव रखता है,वह संयम को प्राप्त | और जो वस्त्र रहित होकर भी असंयमी है वह भी नमस्कार के होकर भी मिथ्यादृष्टि है। योग्य नहीं है। ये दोनों ही समान हैं, दोनों में एक भी, संयमी अमराण वंदियाणं रूवं दठूण सीलसहियाणं। नहीं है ॥२६॥ जे गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति ॥ २५॥ आचार्य कुन्दकुन्द ने सूत्रपाहुड़ में इसप्रकार कहा है : अर्थ : जो देवों से वंदित तथा शील से सहित तीर्थंकर जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तंण गिहदि हत्थेसु। परम देव के (द्वारा आचरित मुनियों के नग्न)रूप को देखकर जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥१८॥ गर्व करते हैं वे सम्यक्त्व से रहित हैं ॥ २५॥ अर्थ : नग्न-मुद्रा के धारक मुनि तिलतुष मात्र भी ___उक्त आधार पर मुनियों की गरिमा और महिमा को | परिग्रह अपने हाथों में ग्रहण नहीं करते। यदि थोड़ा बहुत कम नहीं आंका जा सकता। एक ओर जहाँ कुन्दकुन्द ने | ग्रहण करते हैं तो निगोद जाते हैं। मनित्व की महिमा को मंडित करते हए उन्हें त्रिकाल वंदनीय आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड़ में इसप्रकार कहा निरूपित किया है, वहीं मुनित्व की परिभाषा भी रेखांकित | की है। बाहरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहिदपरियम्मो। जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि। सो सगचरित्तभट्ठो मोक्खपहविणासगो साहू॥६१।। सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसेलोए ॥११॥ अर्थ : जो साधु बाह्य लिंग से तो सहित है परन्तु (सूत्रपाहुड़) जिसके शरीर का संस्कार (प्रवर्तन) आभ्यान्तर लिङ्ग से अर्थ : जो मुनि संयम से सहित है तथा आरम्भ और | रहित है वह आत्म चारित्र से भ्रष्ट है तथा मोक्षमार्ग का नाश परिग्रह से विरत है वही सुर-असुर और मनुष्यों से युक्त | करने वाला है। लोक में वंदनीय है ॥११॥ जो वावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ मुनियों ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिजरासाहू॥१२॥ की पूजा और प्रतिष्ठा जितनी महत्त्वपूर्ण है, उससे ज्यादा (सूत्रपाहुड़) 'मुनित्व' की सुरक्षा है। इसीकारण आचार्य ने आगमोक्त आचरण से रहित मुनियों से संपर्क न रखने का निर्देश दिया अर्थ : जो बाईस परिषह सहन करते हैं, सैकड़ों शक्तियों से सहित हैं, तथा कर्मों के क्षय और निर्जरा करने में कुशल हैं, ऐसे मुनि वंदना करने योग्य हैं। आज हम देखते हैं कि बहुत सारे मुनियों में घोर शिथिलाचार व्याप्त हो रहा है। उनकी चर्या और क्रिया आचार्य कुन्दकुन्द ने निर्ग्रन्थ मुनि के स्वरूप का आगमानुकूल नहीं रह पा रही है। ऐसे बहुत से उपकरण जैसे निरूपण करते हुए चारित्रभ्रष्ट मुनियों का स्वरूप भी 'अष्ट मोबाईल, पंखा, कूलर, एयरकंडीशनर, लेपटॉप आदि , जिन्हें पाहुड़' में कहा है और आदेश दिया है कि चारित्र भ्रष्ट मुनियों परिग्रह ही नहीं, विलासिता का साधन कहा जाता है, उनका की छाया से भी दर रहना चाहिए। उन्होंने दर्शन पाहड में खुल्लमखुल्ला उपयोग होने लगा है। बहुत से साधु फ्लश की इसप्रकार कहा है : लैट्रिन में शौच के लिए जाने लगे हैं। आहारचर्या में भी घोर जे पि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जगारवभयेण। विसंगतियाँ आने लगी हैं। कुछ साधु सचित्त फलों का खुलेआम तेसिं पिणत्थि बोहि पावं अणुमोअमाणाणं॥१३॥ भक्षण करने लगे हैं। पत्तागोभी, धनिया,पुदीना आदि की अर्थ: जो जानते हए भी लज्जा,गर्व और भय के पत्तियाँ एवं तरबूज आदि अभक्ष्य पदार्थों का आहार में लेना कारण उन मिथ्यादृष्टियों के चरणों में पड़ते हैं उन्हें 'नमोस्तु' | प्रारम्भ हो गया है। साधु संस्था में बढ़ती हुई अर्थ लिप्सा भी चिन्तनीय है। कोई साधु तो निश्चित राशि एकत्रित करके देने आदि करते हैं, पाप की अनुमोदना करने वाले उन लोगों को का आश्वासन मिलने पर ही चातुर्मास करते हैं। कुछ साधुओं भी रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती॥ १३॥ अक्टूबर 2005 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524301
Book TitleJinabhashita 2005 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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