SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होगा। आपका जीवनादर्श समाज के लिए अनुकरणीय होना | माँस-निर्यात रोकने के लिए हमें गौशालाओं की जरूरत है, चाहिए। एक चीनी कहावत है कि, 'सौ बार सुनने की | ठीक वैसे ही, सांस्कृतिक प्रदूषण से बचने के लिए सद्संस्कारों अपेक्षा एक बार देखना अच्छा होता है और सौ बार देखने की जरूरत है, जो कि स्वयं परिवार, समाज व राष्ट्र तक की अपेक्षा एक बार करना अच्छा होता है।' जाकर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में फैलेगी व पाठशालायें खोलकर अत: हम कुछ क्रियात्मक गतिविधियाँ अपनायें। कुछ हम उस दिशा में कदम-दर-कदम आगे बढ़ते जायेंगे तथा रचनात्मक कार्य-प्रणाली हमारे जीवन में होनी चाहिये जैसे बचपन की मजबूत नींव पर भविष्य का ठोस प्रासाद खड़ा पाठशालायें खोलना तथा उनमें अपना समय देना। तभी हम कर पायेंगे। 'जियो और जीने दो' का नारा जीवन में उतार ससंस्कारों का बीजारोपण कर पायेंगे तथा बाजारीकरण की | पायेंगे, इस संकल्प के साथ : प्रवृत्ति पर अंकुश लगा पायेंगे। हम स्वयं अपने घर में अपने एक दीपक तुम जलाओ, एक दीपक हम जलायें, बच्चे के पहनावे, बोलचाल एवं जीवन-शैली को सुधारें तथा कुछ अँधेरा तुम हटाओ, कुछ अँधेरा हम हटायें। फिर हम परिवार में समाज को तथा राष्ट्र को इस सांस्कृतिक कार्ड पैलेस, वर्णी कॉलोनी, सागर प्रदूषण से बचाकर अपनी संस्कृति को बचा पायेंगे। जैसे, श्री १००८ भगवान् अजितनाथ जी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी के अधिपति इक्ष्वाकुवंशीय काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु थे। उनकी महारानी का नाम विजयसेना था। उस महारानी ने माघशुक्ल दशमी के दिन अनुत्तर विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् ऋषभदेव के मुक्त हो जाने के अनन्तर जब पचास लाख करोड़ सागर का समय बीत चुका तब अजितनाथ भगवान् का जन्म हुआ। बहत्तर लाख पूर्व की इनकी आयु थी, चार सौ पचास धनुष की ऊँचाई थी और तपाये गए स्वर्ण के समान शरीर का वर्ण था। जब उनकी आयु का चतुर्थांश बीत चुका तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। एक लाख पूर्व कम अपनी आयु के तीन भाग तथा एक पूर्वांग तक उन्होंने सखपर्वक राज्य किया। एक समय उन्हें बादलों में एक क्षण को उल्का दिखाई पडी और तत्क्षण वह विलीन हो गई। इस विनश्वरता को देखकर वैराग्य को प्राप्त भगवान् माघशुक्ल नवमी के दिन सहेतुक वन में गये और वहाँ सप्तवर्ण वृक्ष के नीचे सांयकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ बेला का नियम लेकर दैगम्बरी दीक्षा धारण की। पारणा के दिन वे साकेत नगरी में प्रविष्ट हुए, वहाँ ब्रह्मा नामक राजा ने उन्हें आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इसतरह छदमस्थ अवस्था में बारह वर्ष बिताकर बेला का नियम लेकर मुनिराज अजितनाथ सप्तवर्ण वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। ध्यान की विशुद्धता से पौष शुक्ल एकादशी के दिन सांयकाल के समय घातिया कर्मों के क्षय से उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें एक लाख मुनि, तीन लाख बीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इसतरह धर्म का उपदेश देते हुए भगवान् अजितनाथ ने समस्त आर्य क्षेत्र में विहार किया और अन्त में सम्मेदाचल पर पहुँचकर एक मास का योग निरोध कर चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन प्रात:काल प्रतिमायोग से एकहजार मुनियों के साथ मुक्तिपद प्राप्त किया। 'शलाका पुरुष' (मुनि श्री समतासागर) से साभार 20 अक्टूबर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524301
Book TitleJinabhashita 2005 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy