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पं जगन्मोहन लाल जी की नवम पुण्यतिथि ( १९०१-१९९६ )
परिग्रह-परिमाण व्रत और पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री
सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर में सद्यः निर्मित श्री महावीर उदासीन आश्रम के उद्घाटन के अवसर पर मेरे एक मित्र ने मुझे लिखा कि आश्रम के संस्थापक बाबा गोकुल चंद्र जी ने गणेशीलाल को संत गणेश वर्णी बनने का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हीं वर्णी महाराज ने बारह वर्षीय जगन्मोहन को 'परिग्रहपरिमाण व्रत' देकर सेठ मनमोहन बनने से रोककर पंडित जगन्मोहन लाल बनने की दीक्षा दी थी । यह घटना जैन समाज के इतिहास का एक गौरव है ।
बात बीसवीं सदी के पहले दूसरे दशक की है । कुंडलपुर में उपर्युक्त आश्रम के निर्माण में मेरे पितामह बाबा गोकुलचंद्र जी ने सहयोग हेतु अनेक गाँवों का भ्रमण किया। मेरे पिताजी भी अनेक अवसरों पर उनके साथ थे। मेरे पिताजी के सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सिवनी से सेठ गोपालशाह और खुरई के सेठ मोहनलाल जी ने उन्हें गोद लेने का आग्रह किया । पर मेरे पितामह ने कहा, 'बालक ने परिग्रह - परिमाण व्रत लिया है, इसलिए यह संभव नहीं है।'
कुछ समय बाद कटनी के सवाई सिंघई कन्हैयालाल जी ने उन्हें गोद लेने हेतु निवेदन किया। चूँकि मेरे पितामह इस परिवार से पीढ़ियों से संबंधित थे, अतः बहुत विचारविमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया कि जगन्मोहन स्वामित्व नहीं, दायित्व निर्वाह कर सकेगा ।
अतः उनकी शिक्षा की व्यवस्था की गई। शिक्षित होने पर ‘शिक्षा संस्था कटनी' की स्थापना की गई जहाँ इन्हें धर्माध्यापक के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। अध्यापन के कार्य से जीविका न लेने के कारण इन्हीं पूर्वजों ने एक गाँव की मालगुजारी की आमदनी से इन्हें अपनी जीविका चलाने
का समाधान दिया था ।
अंत तक शिक्षा के बदले वेतन न लेने वाले इन पंडित जी ने अपनी जीविका चलाई तथा स. सिं. कन्हैयालाल जी के जीवनकाल में तथा उसके बाद भी इस परिवार की सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा में योगदान किया । उनके
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ब्र. अमरचंद्र जैन | अनेक पारिवारिक ट्रस्ट एवं मंदिरों की संपूर्ण व्यवस्था में समुचित मार्गदर्शन दिया ।
इसतरह पंडित जी अपने जीवन में तीन बार 'सेठ ' होते-होते बचे तथा एक 'परिग्रह-परिमाण व्रत' के कारण उन्होंने अंत में समाधिमरण प्राप्त किया ।
पूज्य वर्णी जी के साक्षात् शिष्यों की समाज में बड़ी प्रतिष्ठा रही है । पर ज्यों ज्यों समय बीतता गया, उनकी पीढ़ी समाप्त होती रही। वर्णी जी के समान ज्ञानाराधना के साथ चरित्राराधना करने वाले शिष्य तो बहुत ही कम रह गये । इन विरल विद्वानों में जिनका सम्मान से स्मरण किया जाता है, उनमें एक हैं, पं. जगन्मोहन लाल जी ।
अपने व्रत को निरतिचार पालते हुये उन्होंने भगवान् को साक्षी बनाकर १९७४ में ब्रह्मचर्य - प्रतिमा ग्रहण की। व्रतों के इसप्रकार पालन की आस्था उनमें बचपन से ही थी। इसी कारण उनका जीवन संघर्षमय तो रहा, पर संतोष एवं संयम ने उनका साथ नहीं छोड़ा। अपने पांडित्य तथा समाज-धर्म प्रति दायित्व के निर्वाह से उन्होंने पूरे देश में प्रतिष्ठा पाई ।
'परिग्रह परिमाण व्रत' के कारण उनके जीवन का विकास एक संतोषी श्रावक और प्रामाणिक विद्वान के रूप में हुआ। अनेक प्रकार के प्रलोभन आने पर भी उन्होंने व्रत की मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं किया ।
उनके सप्तम प्रतिमा धारण करने तक आ. विद्यासागर जी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में नहीं आ पाये थे। बाद में आचार्य भी उनसे प्रभावित हुए और उन्हें, उच्चतर प्रतिमा ग्रहण करने के लिये, उन्होंने प्रेरित किया। पर पंडित जी ने अपनी पराश्रित शारीरिक अवस्था के कारण इसमें अपनी असमर्थता व्यक्त की । तथापि उन्होंने ९५ वर्ष की अवस्था में कुंडलपुर क्षेत्र पर आचार्य श्री के ससंघ सानिध्य में समाधि प्राप्त की। इस प्रकार उनकी संयम यात्रा का मंगलाचरण ८२ वर्ष पूर्व कुंडलपुर की पावन धरती पर हुआ और समापन भी वहीं हुआ। मेरी उनके प्रति श्रद्धांजलि ।
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कुंडलपुर (म.प्र.)
'अक्टूबर 2005 जिनभाषित 1 3
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