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________________ कि जिनकी प्रतिमा न हो, उनकी पूजा करते समय ही पुष्पों | आदि का तर्क और अनुभवपूर्ण व्यस्थापक जैनधर्म इस में अतदाकार स्थापना के लिए अवतरण आदि क्रियायें करनी | विषय में अधूरा ही रहेगा, यह एक आश्चर्य की बात होगी। चाहिये। इसलिये मेरे विचार से जैन सिद्धान्तानुसार द्रव्यपूजा का जो दूसरे यह कि जब पूजक अपने भावों की स्थिरता के | रहस्य होना चाहिये, वह नीचे लिखा जाता है । लिए केवल भगवान की पुष्पों में अतदाकार स्थापना करता द्रव्यपूजा निम्नलिखित सात अंगों में समाप्त होती हैहै, तो इतना अभिप्राय स्थापन और सन्निधिकरण में से किसी | 1 अवतरण, 2 स्थापन, 3 सन्निधिकरण, 4 अभिषेक, 5 एक क्रिया से ही सिद्ध हो सकता है। इन दोनों में से कोई अष्टक, 6 जयमाला, 7 विसर्जन। शान्तिपाठ व स्तुतिपाठ एक तथा अवतरण की क्रिया निरर्थक ही मानी जायगी। इस जयमाला के बाद उसीका एक अंग समझना चाहिये। यद्यपि समाधान को मानने से स्थापन और सन्निधिकरण दोनों का | अभिषेक की क्रिया हमारे यहाँ अवतरण के पहले की जाती एक स्थान में प्रयोग लोक-व्यवहार की दृष्टि से अनुचित | है, परन्तु यह विधान शास्त्रोक्त नहीं। शास्त्रों में सन्निधिकरण मालूम पड़ता है। लोकव्यवहार में जहाँ समानता का व्यवहार | के बाद ही चौथे नंबर पर अभिषेक की क्रिया का विधान है, वहाँ तो पहले "आइये बैठिये" कहकर, "यहाँ पास में | मिलता है। द्रव्यपूजा के ये सातों अंग हमको तीर्थंकर के गर्भ बैठिये" ऐसा कहा जा सकता है, परन्त अपने से बड़ों के | से लेकर मुक्ति-पर्यन्त महात्म्य के दिग्दर्शन कराने, धार्मिक प्रति ऐसा व्यवहार कभी नहीं किया जायगा। व्यवस्था कायम रखने व अपना कल्याणमार्ग निश्चित करने बहुत से लोग "मम सन्निहितो भव" इस वाक्य का | के लिए हैं, ऐसा समझना चाहिए। अर्थ करते हैं- "हे भगवान ! मेरे हृदय में विराजो," लेकिन यह निश्चित बात है कि संसार में जिसका व्यक्तित्व यह अर्थ भी ठीक मालूम नहीं पड़ता है, कारण कि एक तो | मान्य होता है, वही व्यक्ति लोकोपकार करने में समर्थ होता इधर हम पुष्पों में भगवान का आरोप कर रहे हैं और उधर | है, उसीका प्रभाव लोगों के हृदय को परिवर्तित कर सकता उनको हृदय में स्थान दे रहे हैं, ये दोनों बातें विरोधी हैं। है। अतएव तीर्थंकर के गर्भ में आने के पहले-से उनके दूसरे, पूजक हृदय में स्थापित भगवान को लक्ष्य करके द्रव्य | विषय में असाधारण घटनाओं का उल्लेख शास्त्रों में पाया नहीं चढाता. उसका लक्ष्य तो उस समय प्रतिमा की ओर | जाता है। 15 मास असंख्य रत्नों की वृष्टि, जन्म-समय पर ही रहता है। इसलिये दूसरे आक्षेप का भी समाधान ठीक | 1008 बड़े-बड़े कलशों द्वारा अभिषेक आदि क्रियायें उनके ठीक नहीं होता है। आश्चर्यकारी प्रभाव की द्योतक नहीं, तो और क्या हैं ? आक्षेप 3 : भगवान क्या हमारे बुलाने से आते हैं। वर्तमान में हमलोग भी उनके व्यक्तित्व को समझने के और हमारे विसर्जन करने पर चले जाते हैं ? यदि हाँ, तो लिये तथा आचार्यों द्वारा शास्त्रों में गूंथे हुए उनके उपदिष्ट जैन सिद्धान्त से इसमें जो विरोध आता है उसका क्या परिहार कल्याणमार्ग पर विश्वास करने व उस पर चलने के लिए होगा ? यदि नहीं, तो फिर अवतरण व विसर्जन करने का और 'परंपरा में भी लोग कल्याणमार्ग से विमुख न हो जावें' क्या अभिप्राय है ? इसलिए भी साक्षात् तीर्थंकरके अभाव में उनकी मूर्ति द्वारा आक्षेप 4 : आजकल जो प्रतिमायें पायी जाती हैं | उनके जीवन की असाधारण घटनाओं व वास्तविकताओं उनको यदि हम अरहन्त व सिद्ध अवस्था की मानते हैं तो का चित्रण करने का प्रयत्न करें, यही द्रव्यपूजा के विधान इन अवस्थाओं में अभिषेक करना क्या अनुचित नहीं माना का अभिप्राय है। हमारा यह प्रयत्न नित्य और नैमित्तिक दो जाएगा? यह आक्षेप अभी थोड़े दिन पहले किसी महाशय तरह से हुआ करता है। नैमित्तक प्रयत्न में तीर्थंकर के पंचने जैनमित्र में भी प्रकट किया है । कल्याणकों का बड़े समारोह के साथ विस्तारपूर्वक चित्रण ये चारों आक्षेप बड़े महत्व के हैं, इसलिए यदि किया जाता है तथा प्रतिदिन का हमारा यह प्रयत्न संक्षेप से इनका समाधान ठीक तरह से नहीं हो सकता है, तो निश्चित आवश्यक क्रियाओं में ही समाप्त हो जाता है। समझना चाहिये कि हमारी द्रव्यपूजा तर्क एवं अनुभव से 1. हमारी द्रव्यपूजा नित्य प्रत्यत्न में शामिल है। गम्य न होने के कारण उपादेय नहीं हो सकती है। परन्तु इसमें सबसे पहले अवतरण की क्रिया की जाती है। इस उद्देश्य की सफलता के लिये रत्नत्रयवाद, पदार्थों की व्यवस्था | समय पूजक यह समझकर कि तीर्थंकरपर्यायको धारण करने के लिए निक्षेपवाद तथा उनके ठीक-ठीक ज्ञानके लिए के सन्मुख विशिष्ट पुण्याधिकारी देव स्वर्ग से अवरोहण प्रमाणवाद और नयवाद तथा अनेकान्तवाद, सप्तभंगीवाद | क करनेवाला है, प्रतिमा में तीर्थंकरके प्रागरूप का दर्शन करता मई 2005 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524296
Book TitleJinabhashita 2005 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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