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जाता है, उससे मूर्ति मान्यता का अकाट्य समर्थन होता है। परन्तु द्रव्यपूजा के विषय में कई तरह के आक्षेप उठाये जा · सकते हैं, जिनका समाधान हो जाने पर ही द्रव्यपूजा उपयोगी मानी जा सकती है। नीचे सम्भावित आक्षेपों के समाधान करने का ही प्रयत्न किया जाता है।
आक्षेप 1 : जबकि भगवान में इच्छा का सर्वथा अभाव है, तो उनके उद्देश्य से मूर्ति के समक्ष मंत्रोच्चारणपूर्वक नाना उत्तमोत्तम पदार्थ रख देनेपर भी वे उनकी तृप्ति के कारण नहीं हो सकते। मूर्ति तो स्वयं अचेतन पदार्थ है, इसलिये उसके उद्देश्य से इन पदार्थों के अर्पण करने की भावना ही पूजक के हृदय में पैदा नहीं हो सकती और न वह इस अभिप्राय से ऐसा करता ही है। इसलिये भगवान कीपूजा अष्टद्रव्य से (द्रव्यपूजा) नहीं करनी चाहिए।
है।
इस आक्षेप का समाधान कई प्रकार से किया जाता । परन्तु वे प्रकार सन्तोषजनक नहीं कहे जा सकते। जैसेसमाधान 1 : जिनेन्द्र भगवान तृषा आदि दोषों के विजयी हैं। इसलिये वे हमारे तृषा आदि दोषों के नष्ट करने में सहायक हों, इस उद्देश्य से पूजक उनकी मूर्ति के समक्ष अष्टद्रव्य अर्पण करता है ।
आलोचना : यह तो माना जा सकता है कि जिनेन्द्र भगवान तृषा आदि दोषों के विजयी हैं, परन्तु उनको अष्टद्रव्य चढ़ा देने मात्र से हमारे दोष भी नष्ट हो जायेंगे, यह बात तर्क और अनुभव की कसौटी पर नहीं टिक सकती ।
समाधान 2 : जिनेन्द्र भगवान को अष्टद्रव्य इसलिए चढ़ाये जा कि इसके द्वारा पूजक में बाह्य वस्तुओं से रागपरिणति घटकर त्यागबुद्धि पैदा हो जाती है, जो कि तृषा आदि दोषों के नाश करने का प्रधान कारण है ।
आलोचना : यह समाधान भी ठीक नहीं, कारण कि शास्त्रों का स्वाध्याय, विद्वानों के उपदेश व जिनेन्द्र भगवान गुणों का स्मरण आदि ही बाह्य वस्तु में हमारी रागपरिणति घटाने व त्यागबुद्धि पैदा करने के यथोचित कारण हो सकते
हैं ।
आलोचना : ऐसे निरर्थक दान (जिनका कि कोई उपयोग नहीं) की कोई सराहना नहीं करेगा। वास्तविक दान बाह्य वस्तुओं में अपनी ममत्व बुद्धि को नष्ट करना हो सकता है । यह तो हम करते नहीं और न इस तरह से यह नष्ट की भी जा सकती है। यह तो शास्त्रस्वाध्याय, उपदेश व जिनेन्द्र भगवान के गुणस्मरण आदि से ही होगी, ऐसा पहले बतलाया
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मई 2005 जिनभाषित
। जा चुका है। व्यावहारिक दान दूसरे प्राणियों की आवश्यकताओं की यथाशक्ति पूर्ति कराना कहा जाता है। जिनेन्द्र भगवान कृतकृत्य हैं, उनकी कोई ऐसी आवश्यकता नहीं जिसकी पूर्ति हमारे अष्टद्रव्य के अर्पण करने से होती हो। इसलिए ऐसा दान निरर्थक ही माना जायगा ।
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समाधान 4 : भगवान के गुणस्मरण में बाह्य सामग्री से सहायता मिलती है, इसलिए पूजक भगवान को अष्टद्रव्य अर्पण करता है ।
आलोचना : गुणस्मरण का अवलम्बन मूर्ति तो है ही तथा स्तोत्रपाठ वगैरह से गुण-स्मरण किया जाता ही है, बाह्य सामग्री की उपादेयता इसमें कुछ भी नहीं है। बल्कि जब पूजक भगवान के लिये अष्टद्रव्य अर्पण करता है तो यह द्रव्यपूजा उनकी वीतरागता को नष्ट कर उनको सरागी सिद्ध करने की ही कोशिश है।
समाधान 5 : पूजक भक्ति के आवेश में यह सब किया करता है । इसका ध्यान इसकी हेयोपादेयता तक पहुँचता ही नहीं और न भक्ति में यह आवश्यक ही है। इसलिये द्रव्यपूजा के विषय में किसी तरह के आक्षेपों का उठाना ही व्यर्थ है ।
आलोचना : भक्ति में विवेक जाग्रत रहता है, विवेकशून्य भक्ति हो ही नहीं सकती। जहाँ विवेक नहीं है उसको भक्ति न कहकर मोह ही कहा जायगा। इसलिए यह समाधान भी उचित नहीं माना जा सकता है।
समाधान : जिनकी प्रतिमा पूजक के सामने है, उनकी पूजा करते समय अवतरण, स्थापन और सन्निधिकरण नहीं करना चाहिये, लेकिन जिनकी पूजा उनकी प्रतिमा के अभाव
समाधान 3 : दान की परिपाटी चलाने के लिए यह में भी यदि पूजक करना चाहता है, तो उनकी अदाकार एक निमित्त है । स्थापना पुष्पों में कर लेना आवश्यक है, इसलिये अवतरण, स्थापना और सन्निधिकरण की क्रिया करने का विधान बतलाया गया है।
इसके पहले कि इस आक्षेप का समाधान किया जाय, दूसरे आक्षेपों पर भी दृष्टि डाल लेना आवश्यक हैआक्षेप 2 : प्रतिमा में जब भगवान की स्थापना की जा चुकी है और वह पूजक के सामने है, तो फिर अवतरण, स्थापन और सन्निधिकरण की क्या आवश्यकता रह जाती है ?
आलोचना : एक तो यह कि किन्हीं भी भगवान की पूजा करते समय - चाहे उनकी प्रतिमा सामने हो, या न हो- समान रूप से अवतरण आदि तीनों क्रियायें की जाती हैं । इसलिये बिना प्रबल आधार के यह मानना अनुचित है
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