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सम्पादकीय
जैन संस्कृत महाविद्यालय और इक्कीसवीं शताब्दी 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी, पं. गोपालदास जी वरैया और तत्कालीन स्थानीय दिगम्बर जैन समाज के श्रेष्ठियों ने जैन संस्कृत महाविद्यालयों की स्थापना की थी। प्रमुख महाविद्यालयों में हैं श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, जिसका शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है और जयपुर स्थित श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय जिसका शताब्दी वर्ष 25 वर्ष पूर्व मनाया जा चुका है। ये दोनों महाविद्यालय देश में जैन संस्कृत महाविद्यालयों में प्रथम श्रेणी के महाविद्यालय माने जाते हैं। सम्प्रति जयपुर के महाविद्यालय में जैनदर्शन, साहित्य, प्राकृत अपभ्रंश एवं जैनागम और बौद्धदर्शन के लगभग 325 छात्र उपाध्याय, शास्त्री एवं आचार्य कक्षाओं में अध्ययनरत हैं। जहाँ पर पहले संस्कृत पढ़नेवाले छात्र वमुश्किल बहुत प्रेरणा देने पर मिलते थे, आज श्री दिग. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर एवं टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर को अपनी संस्थाओं में प्रवेश देने के लिये चयन शिविर लगाने पड़ते हैं, क्योंकि प्रवेश हेतु जितने छात्र अपेक्षित हैं उससे अधिक संख्या में छात्र प्रवेश लेने के इच्छुक रहते हैं। सांगानेर में तो यह स्थिति है कि वहाँ प्रवेश के हिसाब से स्थान निर्धारित करने पड़े हैं।
द्वितीय स्तर के महाविद्यालयों में श्री गोपालदास वरैया संस्कृत महाविद्यालय मुरैना, श्री गणेश प्रसाद वर्णी दिग. जैन महाविद्यालय मोराजी सागर, श्री महावीर दिग. जैन संस्कृत महाविद्यालय साढूमल और श्री पार्श्वनाथ दिग. जैन विद्यालय वरुआसागर, जैन गुरुकुल आहारजी आदि माने जाते हैं।
विचारणीय है कि इतनी अच्छी संख्या में छात्र प्राच्यविद्या की ओर आकर्षित हैं। उक्त दोनों प्रथम श्रेणी के महाविद्यालयों में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थिति छात्रसंख्या की दृष्टि से कमजोर हो गयी थी, परन्तु जबसे माननीय पं. बाबूलाल जी फागुल्ल एवं डॉ. फूलचन्द्र प्रेमी जी ने संस्था की ओर ध्यान दिया, तबसे छात्र संख्या में वृद्धि हुई और अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही है।
जयपुर-स्थित महाविद्यालय की स्थिति अति संतोषजनक है, क्योंकि राज्य सरकार एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग दिल्ली से अनुदान प्राप्त होने से शिक्षकों को अच्छा वेतन मिलता है और योग्य स्टाफ होने से योग्य छात्र भी तैयार हो रहे हैं।
श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के उपकार एवं योगदान को समाज कभी भुला नहीं सकता, क्योंकि उसने जैन समाज को अनेक मूर्धन्य विद्वान दिये हैं, जिनके कार्य आज भी स्मरण किये जा रहे हैं और वर्तमान पीढ़ी में जो विद्वान कार्य कर रहे हैं वे अधिकांशतः उसी संस्था के हैं। अभी जो विद्वान तैयार हो रहे हैं वे अधिकांशतः जयपुर, मुरैना, सादमल एवं बरुआसागर से हो रहे हैं। इन महाविद्यालयों में जो पाठ्यक्रम चल रहे हैं, वे सभी विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित हैं, जो सोच-समझकर तैयार किये जाते हैं। उन पाठ्यक्रमों को हम सभी विद्वान ही तैयार करते हैं। वर्तमान में केन्द्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा भी संस्कृत को बढ़ावा देने के लिये अधिकांश प्रदेशों में संस्कृत विश्वविद्यालयों की स्थापना की जा चुकी है। राजस्थान प्रांत में संस्कृत के छात्रों को सरकारी नौकरियों में वही स्थान दिया जाता है जो बी.ए., एम.ए. के छात्रों को दिया जाता है। स्याद्वाद महाविद्यालय से जो विद्वान अध्ययन कर कार्यक्षेत्र में हैं, वे सभी अच्छे स्थानों पर कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में जो जयपुर से छात्र तैयार हो रहे हैं उनमें 70 प्रतिशत छात्र सरकारी नौकरियों में हैं। 20 प्रतिशत ऐसे छात्र हैं, जो निज व्यवसाय में हैं। मात्र 10 प्रतिशत छात्र समाज पर आश्रित संस्थाओं में कार्य कर रहे हैं।
अत: उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वर्तमान में संस्कृत के छात्रों का भविष्य उज्ज्वल है, क्योंकि संस्कृत महाविद्यालयों में व्यवस्थित पाठ्यक्रम के साथ आधुनिक पाठ्यक्रम का भी समावेश है। बोर्ड एवं विश्वविद्यालयों ने कम्प्यूटर शिक्षा का भी समावेश किया है। जिसके कारण, संस्कृत छात्र भी कम्पनियों की नौकरियों में आकर्षित हो रहे हैं। सभी उत्तीर्ण छात्र आई.ए.एस. और एम.बी.ए. जैसी परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर नौकरियों में जा रहे हैं। आज बी.ए., एम.ए., बी.एस.सी. आदि डिग्रीधारी छात्र बेरोजगारी की पंक्ति में हैं, परन्तु शास्त्री, आचार्य उत्तीर्ण छात्रों की स्थिति वैसी नहीं है। अत: संस्कृत के छात्रों की दशा एवं दिशा बहुत ही अच्छी स्थिति में है, क्योंकि इन छात्रों की पेटपूजा के साथ पैरपूजा भी हो रही है, और इस लोक के साथ परलोक भी सुधर रहा है। समाज को चाहिये कि अपने बच्चों को संस्कृत के क्षेत्र में भी पढ़ने की प्रेरणा दे, जिससे वे आदर्श नागरिक बनकर समाज एवं देश की सेवा कर सकें।
डॉ.शीतलचन्द्र जैन, जयपुर
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