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प्रदर्शन के अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं। एक व्यक्ति
अपेक्षा से है। लेकिन हम लोग तर्क बहुत करते हैं। तर्क ही कमीज के कालर को इधर-उधर कर रहे थे। मैंने सोचा कि
नहीं, कुतर्क करते हैं, वे भी ऐसे जो आगम से असंतुलित होते खटमल तो नहीं है। वहाँ खटमल नहीं था, वे गले में पहनी हुई
हैं। अन्त में उपदेश-वचन कि हम दुर्मतिवाले हैं, काल कम है, चेन को बाहर ला रहे थे। उन्हें उसे दिखाना था। अन्दर कौन
| श्रुतका पार नहीं है, उसी में से वही सीख लेना चाहिए जिसके देखे? अन्दर तो आत्मा देख सकता है, लेकिन आत्मा के लिए
माध्यम से हमारा जन्म-मृत्यु का जो रोग है, वह प्रक्षालित किया वह चैन है कहाँ? चैन के द्वारा जो 'चैन' मिल जाती है, वह
| जा सके। उसी में से वही सीख लेना चाहिए जिसके माध्यम से चैन तो दूसरों पर आश्रित है। प्रदर्शन के माध्यम से जो सुख
हमारा जन्म-मृत्यु का जो रोग है, वह प्रक्षालित किया जा सके। शन्ति का अनुभव करता है, उस व्यक्ति के सामने दुनिया हो, ।
ये पंक्तियाँ कितनी मौलिक हैं ! यही भाव कुन्दकुन्दाचार्य ने भी तभी तो पूर्ति हो सकती है।
'नियमसार' के अन्त में दिया था- 'नाना जीवा नाना कम्मा' महावीर भगवान् का सिद्धांत, सुख का सिद्धान्त था। सुख
कहते हुए। इसलिए वचन-विवाद तीन काल में भी नहीं कीजिये। की अनुभूति अपने ऊपर निर्धारित है। अनन्त चतुष्टय को लिये
अनेकमत हैं, अनेक प्रकार के चिन्तन हैं, अनेक प्रकार की हुए सिद्धान्त प्राप्त गौतम स्वामी बैठे हैं, वे भी अपने लिए सुख
विचार प्रणालियाँ हैं, अनेक प्रकार के जीव हैं, अनेक प्रकार स्वमुख की अनुभूति करवाने वाले नहीं है। स्व-पर भेद विज्ञान
की उपलब्धियाँ हैं, इसलिए स्वमत और परमत से, स्वचिंतन इसी को कहते हैं। प्रदर्शन तो अनन्त काल हो चुका। अब लोग
और परचिंतन से किसी प्रकार से विवाद करने का प्रयास मत कुछ भी कहें हमें अपना रास्ता प्रशस्त देखना है। भीड़ बनी |
कीजिए, क्योंकि हम छद्मस्थ हैं। छद्मस्थ के साथ हमारे पास रहेगी, क्योंकि सम्यग्दृष्टि की संख्या एक है, मिथ्यादृष्टि की
कोई विशेष ज्ञान नहीं हैं। इसके साथ हमारा प्रदर्शन है नहीं। संख्या अनन्त है। तीर्थंकर भी इस संख्या का विलोप-अन्त नहीं
ख्या का विलोप-अन्त नहीं | हमारा दर्शन का कार्य है। किस-किस को समझाओगे, क्या कर सके। और दूसरी बात यह है कि अनेकान्त की कीमत,
वाद-विवाद के माध्यम से समझाना होता है? समझाने का अधिकार दर्शन की कीमत तभी हो जब लोग प्रदर्शन करने लग जाते हैं।
हमारे पास नहीं है। आचार्य कहते हैं कि तुम्हारे पास ज्ञान ही सम्यक्त्व के साथ मिथ्यात्व रहता है, दुनिया में रहेगा ही, उसका
नहीं है, तो क्या समझा सकोगे? इसलिए तीर्थंकर आ जाते हैं। संसार में अभाव नहीं होगा। किन्तु हमारी आत्मानुभूति में संसार | लेकिन जब तक तीर्थंकर-प्रकति का उदय नहीं आता. तब तक है, तो हम अभाव कर सकते हैं। और सम्यक्त्व की अनुभूति | वे बोलते ही नहीं। कोई पागल कह दे, तो हँ, कोई अज्ञानी कह हमारी हो सकती है, दुनिया के लिए नहीं समझाने का प्रयास | दे. तो हँ। सब कछ मंजर है। अनेकान्त के बारे में हमारे प्रदर्शन में ही आ जाता। ऐसा नहीं है कि छद्मस्थावस्था में दर्शन
आचार्यों ने इतने उदाहरण दिये हैं, मैं कह नहीं सकता। उनकी की प्रणाली नहीं हो। दर्शन तो चालू होना ही चाहिये, किन्तु
उदारता का वर्णन करने के लिए वचन नहीं है। दर्शन हमारे प्रदर्शन के लिए स्थान आचार्यों ने दिया ही नहीं। दिग्दर्शन वही
लिए कल्याणकारी है, इसको मत भूलिये। प्रदर्शन में न तो करता था, जो दर्शन कर लेता था।
आर्थिक समस्या देखी जाती है, न कोई हिंसा, अत्याचारकुन्दकुन्द स्वामी ने यह लिखा था 'चुक्केज्ज छलं ण | अनाचार देखा जाता है। प्रदर्शन के पीछे सब लप्त हो जाता है। घेतव्वं', समयसार का मैं दिग्दर्शन आप लोगों को भी करवा रहा
चुनाव करने वाले आप हैं (ऐज यू लाइक), अनन्त हूँ, नपे-तुले शब्दों में चूक जाऊँ, चूंकि छद्मस्थ हूँ, तो कुछ | काल से चनाव आपने अपनी रुचि से यही किया। प्रदर्शन नहीं ग्रहण करना। ‘पंचास्तिकाय' उनका प्राकृत ग्रन्थ है।
आपको बहुत अच्छा लगता रहा, किन्तु इतना ध्यान रखिए कि जयसेनाचार्य ने उसकी अपनी टीका के अन्तर्गत उल्लेख किया
सारा प्रदर्शनमय जीवन निरर्थक है। महावीर भगवान् का सिद्धांत था कि श्रुत का कोई पार नहीं है, काल बहुत अल्प है। उसमें
है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वतंन्न है। आप जिस प्रकार चाहते हो, एक उपाधि (टाइटिल) बहुत अच्छी है-हम दुर्मतिवाले, देखिये
उस प्रकार जी सकते हो (ऐज यु लाइक, यु कैन लिव) । यदि आचार्यों ने यह नहीं कहा तुम दुर्मतिवाले, आचार्यों की क्षमता
प्रदर्शनमय जीवन जीना चाहते हैं, तो आपके लिए वह ठीक है। देखिये, उनकी उदारता भी देखिये। हम लोग बहुत दुर्मतिवाले | यदि आपको दर्शन प्राप्त करना है. यह तो ठीक है ही। अतः हैं. 'हम' लोग बड़े मूर्ख हैं, हम लोग बहुत छद्मस्थ हैं । इस | महावीर भगवान को दर्शन से सम्बन्धित कीजिये. प्रदर्शन से प्रकार हम कहने से सारे लोग आ गये। यह भी एक कहने की
| नहीं। आप अपने जीवन को भी उस ओर मोड़ने का प्रयास शैली है। इसमें भी अनेकान्त निहित है। शब्दों का अर्थ वक्ता पर | कीजिये. तभी आत्मोन्नति-आत्मोपलब्धि संभव है। निर्धारित है। आचार्य ही जब अपने आपको यह उल्लेखित कर
'सागर में विद्यासागर' से साभार रहे हैं कि वे ज्ञानी नहीं हैं, दुर्मतिवाले हैं-यह छद्मस्थ की | 2 अप्रैल 2005 जिनभाषित
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