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________________ केवलज्ञान हमारे लिए कोई कार्यकारी नहीं है । हमारा एक अक्षर का ज्ञान भी हमारे लिए कार्यकारी हो सकता है, क्योंकि इसके साथ अनुभूति का पुट लगा है। महावीर भगवान् के ज्ञान के साथ हमारे अनुभव का कोई पुट नहीं है। उनका अनन्त ज्ञान है, हमारा क्षयोपशम ज्ञान है। उसका आधार लेकर हमारा यह ज्ञान क्षयोपशम को प्राप्त हुआ है, इसलिए वह पूज्य है, यह हम कह सकते हैं, उस ज्ञान को हम नमस्कार करने को तैयार हैं। लेकिन भगवान् कहते हैं कि यह नमस्कार करो, मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है। मैं नमस्कार का मौका तो हूँ नहीं, फिर भी नमस्कार करते हुए ‘तद्गुणलब्धये' कहो तो ठीक है, यही बेहतर है । भगवान् ने सारा राज्य छोड़ा, लेकिन हम तो साराका - सारा चाहते हैं । स्वरूप ज्ञान नहीं होने के कारण ऐसा हो रहा है। अपने पास जो निधि है, उसका अनुभव नहीं होने के कारण वह दूसरे की निधि के ऊपर ही अपना जीवनव्यतीत करना चाहता है, इसलिए उसका जीवन अपूर्ण, अधूरा है । जो व्यक्ति अपने जीवन को सम्पूर्ण बनाना चाहता है, वह दूसरे पर आधारित निर्धारित रहना पसन्द नहीं करेगा। वह आलम्बन तो लेगा, वह क्रिया अपना लेगा, लेकिन वह लक्ष्य स्वावलम्बन का रखेगा। अतः हमारा लक्ष्य दर्शन होना चाहिए। प्रदर्शन के साथ भी यदि लक्ष्य दर्शन का है, तो भी ठीक है। लेकिन लक्ष्य दर्शन का न रहकर प्रदर्शन ही रह जायेगा, तो ध्यान रखिये, हमारा जीवन विकास की ओर नहीं बढ़ रहा है, विनाश की ओर चल रहा है। पूर्ण विनाश तो नहीं होगा, किन्तु विकास नहीं होना ही तो विनाश है । आज तक हमारा ज्ञान अपूर्ण रहा, अधूरा रहा, थोड़ा रहा, उसका कारण क्या है ? उसका एकमात्र कारण यह है कि दूसरों के दर्शन करके और दूसरों के माध्यम से ही सुख पाने का लक्ष्य बनाया, इसलिए यह सारा का सारा घोटाला हो गया। अभी कोई बात नहीं है । जो होना था, वह तो हो गया, लेकिन आगे के लिए कम-से-कम उस ओर न जायें। भले ही राग का अनुभव हो रहा हो, अज्ञानता का अनुभव हो रहा हो, किन्तु इस अनुभव के विषय में चिन्तन करें। आत्मा रागी नहीं है, आत्मा वीतरागी है, कह दिया कुन्दकुन्द ने । कुन्दकुन्द ने कहा नहीं, उन्होंने अनुभव किया था कि आत्मा वीतरागी है। हम रटने लगे कि आत्मा वीतरागी है, इस तरह हम राग का अनुभव कर रहे हैं और आत्मा को वीतरागी हम कहते चले जायें, तो यह ज्ञान ठोस नहीं माना जाता, प्रमाण नहीं माना जाता, असली नहीं माना जाता। उधार खाते का यह ज्ञान है। उधार खाते की पोल जल्दी खुल जाती है। वह काफी दिन तक नहीं टिकता। कितने दिनों तक काम आयेगा ? अपने अन्दर यदि पानी हो, कुँआ हो, तो उसमें से पानी भर-भरकर ले सकते हैं, लेकिन आप तो नल पर Jain Education International आश्रित हैं, नलोंका, टोंटियों का जमाना आ गया। आप कुँए के पास जा नहीं सकते। जिसके पास कुँआ है, उसके पास हर समय झरना झर रहा है। ताजा-ताजा खूब पानी आता रहता है, वह कोई उधार खाता नहीं । कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि मैं जो कह रहा हूँ, उसे भी शत-प्रतिशत ठीक मत मानों, क्योंकि मैं जो कह रहा हूँ, वह अपने अनुभव की बात कह रहा हूँ । आप इसके माध्यम से अपने अनुभव की तुलना करो। ठीक बैठे तो ठीक, नहीं तो ठीक हम तो राग का अनुभव कर रहे हैं, लेकिन वीतरागता का प्रदर्शन कर रहे हैं। वह दर्शन का प्रदर्शन नहीं हो रहा है, वह कुन्दकुन्द का प्रदर्शन हो रहा है। इस माध्यम से कुन्दकुन्द की प्रभावना तो हो जायेगी । रत्नाकर कवि दक्षिण भारत के कवियों में मुकुट-कवि माने जाते हैं। " भरतेश वैभव" उनका एक अद्भुत काव्य है। वह महाकाव्य माना जाता है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति दूसरे के माध्यम से जीवन व्यतीत कर रहा है, वह तभी तक प्रशंसा कर सकता है जब तक वह गुमनाम है, लेकिन जब वह अपने अनुभव की ओर दृष्टिपात करता है, उस समय वह कहता है कि ऐसा अनुभव तो नहीं होता, यह कहना ठीक है। लेकिन जो व्यक्ति उस ओर जाता ही नहीं, देखता ही नहीं, अनुभव नहीं करता, तुलना भी नहीं करता, उस व्यक्ति का जीवन तो और भी अंधकारमय है। वह उसी के माध्यम से चलता जा रहा है, वह निरर्थक है । उसमें उन्होंने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक कौआ या बन्दर था। वह ऊपर से पके अंगूर (द्राक्ष) खा रहा था। उसका दोस्त सियार वहाँ आया। उसने पूछा कि तुम ऊपर क्या कर रहे हो, वहाँ क्या खा रहे हो ? बन्दर ने कहा कि क्या कहूँ- बड़ा स्वाद आ रहा है। तुम भी ऊपर आ जाओ, तो मजा आ जायेगा। अंगूर ऐसे पके हैं कि बस कहने के लिए भी फुरसत नहीं है, मीठा अनुभव हो रहा है। एकदम पटकूँ तो वह भी ठीक नहीं है। नीचे धूल है, उसके कारण अंगूर की मिठास और स्वाद समाप्त हो जायेगा। ऊपर ही आ जाओ तो बहुत अच्छा है। लेकिन वह सियार ऊपर कैसे जाता ? उसने प्रशंसा भी सुन ली, उसकी इच्छा भी हो गयी। उसने तीन-चार बार छलांग भी लगा ली। अब तो उसके पैरों की शक्ति कम हो गयी, चौथी बार में उसकी वाणी खिर गयी कि अंगूर बहुत खट्टे हैं । यही हमारा हाल हो रहा है। दर्शन और प्रदर्शन में यही तो अन्तर है। छीना-झपटी के कारण परिस्थितिवश आजकल गहनों का प्रदर्शन अवश्य कम हो गया है। सभा में फोटो खींची गयी हो, उसमें अमुक व्यक्ति का फोटो नहीं हो, तो उसके लिए उसका कोई मूल्य नहीं है। जैसे कि वह फोटो में है । अब आप ही सोचिये कि आप फोटो में हैं या फोटो आप में है ? ऐसे 'अप्रैल 2005 जिनभाषित 1 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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