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________________ जैन-मुनि का दिगम्बरत्व पं. शन्तिराज जी 'शास्त्री' आस्थान महाविद्वान् मैसूर जैनियों में मुख्य सम्प्रदाय दो हैं- दिगम्बर और | तत्त्वविचार-शून्य-अज्ञलोग निन्दा करते हैं उस अचेलत्वगुण श्वेताम्बर । स्थानकवासी जैनसम्प्रदाय श्वेताम्बर जैन-सम्प्रदाय | का विवेचन इस लेख में किया जाता है। में अन्तभूर्त है। दिगम्बर देव के और दिगम्बर मुनियों के जो सर्वसङ्ग परित्यागी शरीरममकारहीन और ज्ञान ध्यान उपासक हैं वे दिगम्बर जैन कहलाते हैं और श्वेत-वस्त्र | तपोनिरत दिगम्बर मुनि विचार करता है कि जिस प्रकार धारक मुनियों के उपासक श्वेताम्बर जैन कहलाते हैं। कोश में खड्ग तथा छिलके से माषादि धान्य जुदा है उसी जैन-शब्द अर्थ "सास्य देवता" इस सूत्र के अनुसार | प्रकार आत्मा शरीर से भिन्न है और जड़ शरीर का असाधारण जिसको कर्म शत्रुनाशक जिन है देवता वह जैन कहलाता है। | लक्षण रस गन्ध स्पर्श है तथा आत्मा का असाधारण लक्षण जो जीवादि तत्त्वों को जानता है वह मुनि कहलाता है। ज्ञानदर्शनात्मक चेतना है। इस प्रकार का चिन्तन को भेददिगम्बरत्व शब्द में जो 'दिक्' शब्द है वह पूर्वादि दिग्वाचक | विज्ञान कहते हैं। आत्मा तीन प्रकार की है- बहिरात्मा, है और 'अम्बर' शब्द वस्त्रवाचक है तथ त्वप्रत्यय भाववाचक | अन्तरात्मा और परमात्मा। इनमें भावलिङ्गी दिगम्बर मुनि है। जिनदेव का उपासक जो मनि है वह भी जिनदेव के अन्तरात्मा-भेदविज्ञानी हैं। भेदविज्ञान की विचारसरणि को अनुसार दिगम्बर मुद्रा को ही धारण करता है। निम्नलिखित श्लोक से जान सकते हैं। व्यवहारों में जो गेरु-वस्त्र धारण करता है वह गुरु, 'त्वं शुद्धात्मा शरीरं सकलमलयुतं त्वं सदानन्दमूर्तिः । मुनि, तपस्वी, योगी, सन्यासी इत्यादि शब्दों में पुकारा जाता देहो दुःखैकगेहं त्वमसि सकलवित् कायमज्ञानपुञ्जम् है, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो मद्रास त्वं नित्यः श्रीनिवासः क्षणरुचिसदृशाशाश्वतैकाङ्गमङ्गम् थियासफिकल सोसाइटी के सहायक कार्यदर्शी नारायणस्वामी मागा जीवात्र रागं वपुषि भज भजानन्तसौख्योदयं त्वं ॥' ऐयर B.A., B.L. के "Digambara is the highest ___ भावार्थ - हे जीव निश्चयनय से तू शुद्धात्मा है और stage of saint. Be as naked as Akasha to reach | शरीर सकलमल युक्त है, तू सदा आनन्दमूर्ति है और शरीर the highest condition" अर्थात् मुनि की दिगम्बरावस्था दुःख का मुख्य गृह है। तू सर्वज्ञ है और शरीर अज्ञान का सर्वोत्कृष्ट है। यह विषय स्वसमय परसमय सिद्धान्तों से और पुञ्ज है। तू नित्य तथा बाह्याभ्यन्तर लक्ष्मी निवास स्थान है दृष्टान्तों से भलीभांति समर्थित होता है। और शरीर क्षणरुचि (क्षणप्रभा) के समान अनित्यता का शास्त्रविधि है कि दिगम्बर मुनि अट्ठाईस मूल गुणों मुख्य स्थान है, ऐसे शरीर में प्रीति मत करो, तू अनन्त सौख्य को पालन करें, वे गुण अधोलिखित प्रकार हैं: के आविर्भाव का सेवन करो।। १. अहिंसा महाव्रत, २. सत्यमहाव्रत, ३. अचौर्य ऐसे भेदविज्ञानी साधु-मुनि तपस्वी प्राणिपीडाहेतु भूत महाव्रत, ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५. परिग्रह त्यागमहाव्रत, ६. परिग्रह का लेश भी अपने में न रहे इस उद्देश्य से सर्व इयोसमिति, ७. भाषा समिति, ८. एषणा (आहार) समिति, परिग्रहों को त्याग करके दिगम्बर तपस्वी होता है। उस साधु ९. आदान निक्षेपण समिति, १०. व्युत्सर्ग समिति, ११. | मुनि का लक्षण अधोलिखित श्लोक में उल्लिखित है :स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह, १२. रसनेन्द्रियनिग्रह, १३. घाणेन्द्रियनिग्रह, देहे निर्ममता गुरौ विनयता नित्यं श्रुताभ्यासता। १४. चक्षुरिन्द्रियनिग्रह, १५. श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, १६. सामायिक, चारित्रोज्ज्वलता महोपशमता संसार निर्वेगता॥ १७. स्तवन, १८. वन्दना, १९. प्रतिक्रमण, २०. प्रत्याख्यान, अन्तर्बाह्य परिग्रह त्यजनता धर्मज्ञता साधुता। २१. कायोत्सर्ग, २२. केशलोंच, २३. भूशयन, २४. अदन्त साधो! साधुजनस्य लक्षणमिदं संसारविच्छेदकम्॥ धावन, २५. अचेलत्व (दिगम्बरत्व), २६. अस्नान, २७. स्थिति भावार्थ - हे साधु शरीर में ममकाररहित ज्ञानतपोवृद्ध भोजन और २८. एक भोजन। गुरुजन में विनयपरता, सदा शास्त्राभ्यासपरता, उत्कृष्टाचारपरता, ____ उपर्युक्त २८ मूलगुणों में प्रत्येक का विस्तृत वर्णन महोपशमता, संसारविरक्तताः क्रोधहङ्करादि अन्तरङ्ग करने से लेख बहुत बढ़ जाएगा। अत: उन गुणों में जिसको परिग्रहत्याग और धनधान्यादि बाह्य परिग्रहत्याग, धर्मज्ञत्व 16 अप्रैल 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524295
Book TitleJinabhashita 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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