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पंच गजरथ महोत्सव में भगवान के जन्माभिषेक के लिए चुना गया है। यहाँ इस पावन भूमि का वैशिष्ट्य और सौभाग्य है।
आगम में नन्दीश्वर द्वीप
प्रत्यक्ष होने से इस पृथ्वी मण्डल की संरचना तो सर्वविदित है, परन्तु असीम लोक में सुदूर क्षितिज के उस पार फैला हुआ अद्भुत अज्ञात लोक योगियों की सूक्ष्म दृष्टि में ही आ पाता है। जैन, बौद्ध और वैदिक आदि सभी दर्शनकारों ने लोक के बाबत् अपने-अपने ढंग से बहुत कुछ कहा है। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस अज्ञात जगत के अन्वेषण में लगे हैं ।
जैनदर्शन में निष्णात भूगोलवेत्ता आचार्य भगवन्तों ने कहा है कि अनन्त आकाश के बीच स्थित अनादि-अनिधन और अकृत्रिम लोक है, जो तीन भागों में विभक्त है। मध्यलोक जो असंख्यात द्वीप और समुद्रों से युक्त है, मनुष्य और अन्य छोटे-बड़े जीवों का शरणस्थल है । असीम ऊँचाइयों पर स्थित ऊर्ध्वलोक दैवी सम्पदा से भरा पड़ा है, और नीचे अतल गहराई में पीड़ा से झुलसता नरक है। इन सबकी सत्यता पर प्रश्नचिह्न लगाना जितना आसान है, शायद इनकी सच्चाई को जान पाना उतना ही मुश्किल है।
मध्यलोक के असंख्यात द्वीपसमुद्रों में प्रथम जम्बूद्वीप है, जिसके एक हिस्से में हमारा भारतवर्ष है । मानो एक विशाल कैनवास पर किसी ने एक बिन्दु रख दिया हो । जम्बूद्वीप से आगे जाकर सात समुद्र और छह महाद्वीप पार करने पर आठवाँ महाद्वीप नन्दीश्वर है, जहाँ देवसृष्टियाँ निरन्तर विभिन्न उत्सवों के अवसर पर उतरती और जिनमन्दिरों दिव्यपूजा और अर्चना में लीन रहती हैं। इस महाद्वीप का विस्तार लगभग एक सौ त्रेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है।
इस समूचे द्वीप पर चारों दिशाओं में हर दिशा के मध्य में ढोल के समान गोल आकृतिवाला अञ्जनगिरि नामका एक-एक पर्वत अपनी श्याम नील वर्ण वाली आभा बिखेरता शोभित होता है। आप देखना चाहें तो पर्वत की चारों दिशाओं में लगभग एक-एक लाख योजन जाकर देखें कि वापिकायें कितनी सुन्दर हैं। पूर्व दिशा में जाने पर नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिषेणा वापिकायें है । दक्षिण की ओर जाइये तो अरजा, विरजा, गतशोका और वीतशोका नाम की वापिकायें दिखने लगती हैं। पश्चिम दिशा में आगे बढ़िये, ये रहीं विजया, वैजयंती, जयंती और अपराजिता वापिकायें। ये रहीं उत्तर दिशा में रम्या,
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रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा वापिकायें। सब ओर फैली प्रकृति का सौन्दर्य कितना अद्भुत है। एक हजार योजन अवगाहना वाली इन वापिकाओं की अथाह जलराशि बरबस ही मन को मोहित कर लेती हैं।
प्रत्येक वापी के चारों ओर अशोक, सप्तच्छ, चम्पक और आम्रवृक्षों से पल्लवित और पुष्पित वनों का सौरभ हवाओं में मानो रस ही भर देता है। इस तरह द्वीप के प्रत्येक दिशा में चार वापिकायें ओर सोलह वन हैं। चारों दिशाओं में सोलह वापिकायें और चौसठ वन हैं। इतना ही नहीं हर वापिका के बीच एक फेनिल दुग्ध सा धवल उज्ज्वल दधिमुख पर्वत है। प्रत्येक वापिका के दोनों कोणों पर उगते सूरज की लालिमा लिये दो रतिकर पर्वत हैं। लगता है देखते-देखते थक गये आप, चलिये थोड़ा विश्राम कर लीजिये । सोचिये, इस तरह इस द्वीप में प्रत्येक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर पर्वत हैं। अंजनगिरि सबसे ऊँचा है । मानिये, लगभग चौरासी हजार योजन ऊँचे हैं। चारों दिशाओं में कुल मिलाकर चार अंजनगिरि, सोलह दधिमुख और बत्तीस रतिकर पर्वत यानी सब बावन पर्वत हुए।
चलिये, अब मन बना लीजिये। इन पर्वतों पर बने बावन भव्य जिनप्रतिमाओं से युक्त बावन अकृत्रिम और अविनाशी जिनमंदिरों के दर्शन कर लें। ये ऊँचे-ऊँचे मंदिर सचमुच कितने ऊँचे हैं। इनकी ऊँचाई पचहत्तर योजन है। लंबाई सौ योजन और चौड़ाई पचास योजन है । आओ, इसके सोलह योजन ऊँचे और आठ योजन चौड़े द्वार से भीतर प्रवेश करें। पूरा मंदिर स्वर्णमय है । वन, उपवन, तोरण, वेदिका, चैत्यवृक्ष, मानस्तम्भ, श्रेष्ठमण्डपों और दस प्रकार की ध्वजाओं से शोभित हैं। अभिषेक, प्रेक्षणिका, क्रीडांगन संगीत नाट्यगृहों से युक्त है। दूरदूर तक झन झन की आवाज करने वाले घण्टाओं के समूह, हवाओं में सौरभ बिखेरते भव्य धूपदान, रत्नमयी सिंहासन, छत्र, चमर, तालव्यंजन और दर्पण की शोभा अद्भुत है | वह देखो दूर आकाश से सारस, हँस, मोर और पुष्पक आदि विमानों पर आरूढ़ होकर देवगण इस द्वीप में उतर रहे हैं। हाथों में दिव्यफल और दिव्यपुष्प आदि पूजा की सामग्री लेकर आये हैं । इनके दिव्य आभूषणों, ध्वजाओं और वादित्रों की गूँज से सारा आकाश चमक-दमक उठा है । ये लोग यहाँ हमेशा प्रतिवर्ष की आषाढ़, कार्तिक तथा फाल्गुन मास की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक निरन्तर
जनवरी 2005 जिनभाषित 5
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