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________________ 'इंदियाणुवादेण एइन्दिया बादरासुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता केवड खेत्ते ? सव्वलोगे । 1/3/17 ॥ षटखण्डागम अर्थ - इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से एकेन्द्रिय जीव, वादर एकेन्द्रिय जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव पर्याप्त तथा अपर्याप्त कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्वलोक में । श्री वीरसेन आचार्य ने इस सूत्र की टीका में लिखा है'सत्थाण- वेदण-कसाय मारणंतिय-उववादगदा एइंदिया केवड खेत्ते ? सव्वलोगे।' ( धवल पु. 4 पृष्ठ 82 ) अर्थ - स्वस्थान, वेदना - समुद्घात, कषाय- समुद्घात, मारणान्तिक-समुद्घात और उपपाद को प्राप्त एकेन्द्रिय जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोक में रहते हैं । नरकों में एकेन्द्रिय जीवों के निवास पर धवला पुस्तक7 में कहा है कि अधोलोक के आठ प्रथ्वीयों में इन्द्रियों से अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथ्वी सम्बद्ध अग्निकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों का वहाँ अस्तित्व पाया जाता है। जिन पृथ्वीयों में शीत और उष्णता है ये उनके ही पृथ्वी गुण हैं। नरकों में शीत से भी उत्पन्न होने वाले पगण और कुहुण वनस्पति विशेष वहाँ पाये जाते हैं। अत्यन्त उष्णता में भी उत्पन्न होने वाले जवासद आदि वनस्पति विशेष वहाँ पाये जाते हैं। उपरोक्त प्रकरण के अनुसार नरकों में पंचस्थावर जीवों का अस्तित्त्व मानना चाहिए। प्रश्नकर्ता - पं. देवेन्द्र कुमार, जबलपुर जिज्ञासा - भगवान को पहनाए जाने वाले वस्त्राभूषण क्या देवोपुनीत होते हैं? समाधान- उपरोक्त प्रश्न के समाधान में श्री त्रिलोकसार गाथा 520-21 और 22 में इसप्रकार कहा गया है: प्रथम स्वर्ग की सुधर्मा सभा के आगे एक योजन विस्तार वाला और 36 योजन ऊँचा पादपीठ से युक्त बज्रमय मानस्तम्भ है । उस मानस्तम्भ पर एक कोस लम्बे और पाव कोश विस्तृत रत्नमय सींकों के ऊपर तीर्थंकरों के पहनने योग्य अनेक प्रकार के आभरणों से भरे हुए पिटारे स्थित हैं । सौधर्म कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित पिटारों के आभरण भरत क्षेत्र संबंधी तीर्थंकरों के लिए हैं। ऐशान कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित पिटारों के आभरण ऐरावत के तीर्थंकरों के लिए हैं। इसी प्रकार सानत्कुमार कल्प में स्थित मानस्तम्भ के पिटारों के आभरण पूर्वविदेह संबंधी तीर्थंकरों के लिए और माहेन्द्र कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित पिटारों के आभरण पश्चिम विदेह संबंधी तीर्थंकरों के लिए हैं। ये सभी पिटारे देवों द्वारा स्थापित और सम्मानित हैं । इस प्रकार सभी तीर्थंकरों के आभूषण देवोपुनीत होते हैं और उपरोक्त स्वर्गों में स्थित पिटारों से देवों द्वारा लाये जाते हैं । Jain Education International जिज्ञासा - चारों गतियों के जीवों के कौन-कौन सा संहनन होता है? समाधान - श्री सिद्धान्तसार दीपक अधिकार - 11 के श्लोक नं. 118 से 130 तक इसका विस्तार से वर्णन है, जिसका अर्थ इस प्रकार है : म्लेच्छ मनुष्यों, विद्याधरों, मनुष्यों, संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यंचों और कर्मभूमिज तिर्यंचों के छहों संहनन होते हैं ॥ 118 ॥ असंज्ञी तिर्यंचों के विकलेन्द्रिय जीवों के और लब्धपर्याप्तक जीवों के असंप्राप्तासृपाटिका नामक छठा संहनन होता है । 119 ॥ परिहार विशुद्धि संयम से युक्त मुनिराजों के प्रथम तीन बज्रवृषभनाराच, बज्रनाराच तथा नाराच ये तीन संहनन होते हैं॥ 120-21 ॥ कर्मभूमिज द्रव्यवेदी स्त्रियों के अर्धनाराच, कीलक तथा असंप्राप्तासृपाटिका ये तीन संहनन होते हैं। भोगभूमिज मनुष्यों और स्त्रियों के प्रथम बज्रवृषभनाराच सहनन होता है। 122-231 एक मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सप्तम गुणस्थान पर्यन्त जीवों के छहों सहनन होते हैं ॥ 124 ॥ उपशम श्रेणीगत 8-9-10 तथा 11 वें गुणस्थान में प्रवृत्तमान मुनिराजों के प्रथम तीन संहननों में से कोई एक होता है। जबकि क्षपक श्रेणीगत 8 वें 9वें 10वें, 12वें गुणस्थानवर्ती मुनिराजों के एक सयोग केवली भगवान के प्रथम संहनन होता है । 125 से 128 ॥ अयोगकेवलियों के, देवों के, नारकियों के, आहारक शरीरी महाऋषियों के, एकेन्द्रिय जीवों के और विग्रहगति स्थित जीवों के कोई संहनन नहीं होता ॥ 129-130 ॥ जिज्ञासा - स्थावर काय की उत्कृष्ट व जघन्य अवगाहना कितनी है ? समाधान एकेन्द्रिय जीव की जघन्य अवगाहना, ऋजुगति से सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले लब्धि अपर्याप्तक निगोदिया जीव की उत्पत्ति के तृतीय समय में घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है तथा उत्कृष्ट अवगाहना स्वमभूरमण दीप के मध्यवर्ती भाग में उत्पन्न कमल की होती है, जो एक हजार योजन लम्बा x 1 योजन चौड़ा और एक योजन मोटा होता है। श्री मूलाचार गाथा 1090 में इस प्रकार कहा है: - सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयसि। हवदि दु सव्वजहणणं सव्वुक्कस्सं जलचराणं ॥ 1090 ॥ गाथार्थ - सूक्ष्मनिगोदिया अपर्याप्तक के उत्पन्न होने के तृतीय समय में सर्वजघन्य शरीर होता है और जलचरों का शरीर उत्कृष्ट होता है | 1090 साहियसहस्रमेयं तु जोयणाणं हवेज्ज उक्कस्सं । एदियस्स देहं तं पुण पउमत्ति णादव्वं ॥ 1072 ॥ गाथार्थ : एकेन्द्रिय जीव का उत्कृष्ट शरीर कुछ अधिक एक हजार योजन होता है। जनवरी 2005 जिनभाषित 31 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524293
Book TitleJinabhashita 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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