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कि
की दृष्टि में
प्राकृतिक न्याय के हनन और दमनकारी कानून के विरूद्ध अहिंसा लक्षणोधर्मस्तितिक्षालक्षणस्तथा।
भी सक्रिय कदम उठा सकें और जो दमन, अन्याय और यस्य कष्टे धृतिर्नास्ति, नाहिंसा तत्र सम्भवत्॥
गरीबी के विरूद्ध एक ठोस, प्रभावपूर्ण लड़ाई लड़ सकें।"13 अर्थात् अहिंसा धर्म का प्रथम लक्षण है तथा तितिक्षा
राजनीति के निर्णयों के विरूद्ध हम यदि प्रेम-विश्वप्रेम (सहिष्णुता) द्वितीय लक्षण है। जिसके कष्ट में धैर्य नहीं
का पैगाम समझा सकें तो हमारी महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी। है वहाँ अहिंसा सम्भव नहीं है।
जिगर मुरादाबादी का यह शेर बड़ा मौजूं है किधर्म तो अहिंसा समन्वित है। यदि संसार के सभी
उनका जो फर्ज है वह अहले सियासत जाने। धर्मों का लघुत्तम निकाला जाये तो वह अहिंसा ही होगा।
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे॥ अन्तरंग में साम्यभाव और व्यवहार में प्रमाद रहित स्थिति
जहाँ पहले हमारे घरों में अहिंसा का वास था वहाँ अहिंसा के लिए आवश्यक है। जैनाचार्यों ने मात्र किसी
आज हमारे घर परिवार हिंसा के घर बन गये हैं। मच्छर को मारना ही हिंसा नहीं कहा अपितु राग-द्वेष सहित
मारने, चींटी मारने, कीड़े मारने की दवा से लेकर आदमी प्रवृत्ति को भी हिंसा कहा। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं
मारने तक की दवा मौजूद है। पानी छानने से जिस घर के
क्रियाकलापों का प्रारंभ होता था वहीं आज खानपान में अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
अभक्ष्य पदार्थ रूचि से खाये और खिलाये जाते हैं। रसोई तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥1 घरों में चप्पल संस्कृति के प्रवेश तथा रेडीमेड व्यंजनों अर्थात् राग-द्वेषादि का उत्पन्न नहीं होना अहिंसा है (खाद्य पदार्थों) एवं अमर्यादित अचारों के भरपूर दैनन्दिन और उन्हीं राग-द्वेषादि की उत्पत्ति हिंसा है. यह जिनागम व्यवहारों से हम कितने अहिंसक रह गये हैं, यह विचार का सार है।
एवं अन्वेषण का विषय है। हमारी भावनाओं के संकुचन वर्तमान दौर युद्ध, आतंकवाद और हिंसा का है। ने हमारी अहिंसा की हिंसा की है। चारों ओर भय के बादल मंडरा रहे हैं। इन सबके मूल में आज पारिवारिक हिंसा चरम पर है। गर्भ में आने हिंसक संसाधनों का संग्रह है। यदि विभिन्न राष्ट्रों के पास | वाले शिशुओं खासकर कन्या भ्रूणों की रक्षा मुश्किल हो अस्त्र-शस्त्र, परमाणु बम, हाइड्रोजन बम आदि नहीं होते | गयी है। उन्हें गर्भ में ही मार दिया जाता है। शहरों कस्बों तो विश्व समाज को इतना भयाक्रान्त नहीं होना पड़ता। में खुले सोनोग्राफी क्लिीनिक हमारी अहिंसक भावनाओं आचार्यों ने शस्त्र संग्रह को भी हिंसा माना। पुरुषार्थ- की हिंसा के लिए सर्वोत्तम साधन बन गये हैं जिनमें होने सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि
वाले गर्भस्थ शिशुओं के करूण क्रन्दन सुनने वाला कोई सूक्ष्मापि न खलु हिंसा पर वस्तुनिबन्धना भविति पुंसः। नहीं है। भक्त बेरहम हो गये हैं और भगवान तो वीतरागी हिंसायतन निवृत्तिः परिणाम विशुद्धये तदपि कार्या॥12 हैं ही।
अर्थात् परपदार्थ के निमित्त से मनुष्य को हिंसा का एक समाचार आया था कि एक व्यक्ति अपनी पत्नी रंचमात्र भी दोष नहीं लगता, फिर भी हिंसा के आयतनों- | को प्रताड़ित करने के लिए उसका खून निकालकर शराब स्थानों (साधनों) की निवृत्ति परिणामों की निर्मलता के में मिलाकर पीता था। दहेज प्रताड़ना के कारण अनेक लिए करनी चाहिए।
युवतियां असमय काल-कवलित हो जाती हैं, आग की यहाँ हमारे तथाकथित सभ्य समाज की भल रही जो | भेंट चढ़ जाती हैं। वृद्धों के संरक्षण की बेटा-बेटियों को उसने पूर्ववर्ती आचार्यों की वाणी को आदर नहीं दिया | कोई चिन्ता नहीं हैं उन्हें ओल्ड होम्स में ले जाने के लिए
और जब उसके दुष्परिणाम भोगने का समय आया तो अब | होड़ लगी है। हमारे दिल छोटे हो गये हैं, दिमाग बड़े हो निरूपाय हो सिर धन रहे हैं। आज अहिंसा और अहिंसकों | गये हैं और भावनायें लाभ-हानि के तराज पर घटने-बढने की भूमिका अति प्रासंगिक हो गयी है। 'माइकल स्कॉट' लगी हैं। ऐसे में अहिंसा के नारे कौन लगाये मानसिक, ने लिखा है कि- "एक नए क्रान्तिकारी आंदोलन की | वाचनिक और शारीरिक हिंसा के लिए अवसर ही अवसर तत्काल अपेक्षा है जिसमें न केवल परमाणु अस्त्र-शस्त्रों । हैं। वृद्धाश्रमों में जाकर यदि वृद्धों की आप-बीती सुनें तो के उत्पादकों के प्रति अहिंसक प्रतिरोध की विधियों के हम अपनी प्रगतिशीलता और अमानवीयता को धिक्कारे प्रयोग करने का साहस हो, बल्कि मानव अधिकार और हए नहीं रह सकेंगे। महिला वर्ग की स्थिति तो और भी
- जनवरी 2005 जिनभाषित 19
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