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________________ गाथा 158 की टीका करते हुए लिखा है कि 'भोगभूमियां के नव महीना आयु अवशेष रहै, तब त्रिभागकरि आयुबंधै है।' यह कथन यद्यपि गाथा में नहीं है, पर पं. टोडरमल जी ने, गोम्मटसार कर्मकाण्ड की केशववर्णी कृत टीका का अनुवाद करते हुए लिखा है। केशववर्णी टीका में लिखा है ' देवनारकाणां स्वस्थितौ षठमासेषु भोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टे त्रिभागेन आर्युबन्ध संभवात्।' अर्थ देव नारकियों की, अपनी आयु 6 मास शेष रहने पर और भोगभूमियां जीवों की नवमास शेष रहने पर, त्रिभाग में आयुबंध संभव होता है। गोम्मटसार जीवकाण्ड की पं. टोडरमल जी द्वारा रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका प्रथम खण्ड पृष्ठ 600 पर गाथा 618 की टीका में भी इसी प्रकार नवमास रहने पर आयुबन्ध की योग्यता कही है। जबकि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने कर्मकाण्ड गाथा 640 में इस प्रकार कहा है 'भोगभुमा देवाउं छम्मासवट्ठिगे पबद्धंति ।' अर्थ - भूमिभूमियां जीव आयु के छह मास शेष रहने पर देवायु का बंध करते हैं। (इस गाथा की टीका करते हुए केशववर्णी जी ने भी भोगभूमियां जीवों के आयु के छह मास शेष रहने पर मात्र देवायु का होना लिखा यथा 'भोगभूमिजाः षण्मासेऽवशिष्टै दैवं') निष्कर्ष यह है कि आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती तो भोगभूमियां जीवों के छह माह आयु शेष रहने पर ही आयु बंध मानते हैं । परन्तु केशववर्णी के दो मत हैं और उसी का अनुवाद पं. टोडरमल जी ने किया है। अब आचार्यों के द्वारा कहे गये अन्य प्रमाणों पर विचार करते हैं। 1. श्री धवला पु. 10. पृ. 234 पर इस प्रकार कहा है- 'णिरूवक्कमाउआ पुण छम्मासावसे से आउअबंधपाओग्गा होंति' अर्थ जो निरूपक्रमायुष्क (देव एवं नारकी तथा भोगभूमियां) जीव हैं वे अपनी भुज्यमान आयु छह मास शेष रहने पर आयुबंध के योग्य होते हैं । - 2. श्री धवला पु. 6 पृष्ठ 170 अर्थ- 'असंख्यात् वर्ष की आयु वाले भोगभूमियां तिर्यंच और मनुष्यों में देव और नारकियों के समान 6 मास से अधिक आयु रहने पर परभव संबंधी आयु के बंध का अभाव है।' उपरोक्त प्रमाणों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि सभी आचार्यों का मत तो भोगभूमियां जीवों के, आयु का 6 माह शेष रहने पर ही आयु बंध स्वीकार करता है । जिज्ञासा - क्या विपुलमति मन:पर्ययज्ञान वाले मुनि महाराज चरमशरीरी होते हैं ? Jain Education International समाधान यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि टीकाओं में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, फिर भी अन्य शास्त्रों में पाया जाता है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान धारी मुनिराज चरमशरीरी ही होते हैं । इस संबंध में कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - 1. पंचास्तिकाय की टीका में आ. जयसेन महाराज ने गाथा 43 की टीका में इस प्रकार कहा है निर्विकारात्मोपलब्धि भावनासहितानां चरमदेहमुनीनां विपुलमतिर्भवति । अर्थ - विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान निर्विकार आत्मोपलब्धि भावना से सहित चरम शरीरी मुनियों को होता है। 2. श्री गोम्मटसार जीवकाण्ड टीकाकार- पं. रतनचन्द जी मुख्तार, पृष्ठ-518 पर कहा है " ऐसा नियम है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उसी के होता है जो तद्भवमोक्षगामी होते हुए भी क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है, किन्तु ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। वह तद्भवमोक्षगामी के भी हो सकता है और अन्य के भी हो सकता है। " 3. जैनतत्त्वविद्या-लेखक- मुनि प्रमाणसागर जी महाराज, पृष्ठ-258 पर कहा है “विपुलमति अप्रतिपाति है यह एक बार उत्पन्न होने के बाद केवलज्ञान होने तक बना रहता है। विपुलमति मन:पर्ययज्ञान तद्भव मोक्षगामी और वर्धमानचारित्री मुनियों को ही होता है, ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान का इस विषय में कोई नियम नहीं है।" 4. श्री सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/24 के विशेषार्थ में पं. फूलचन्दजी सिद्धान्ताचार्य ने पृष्ठ 93 पर लिखा है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उसी के होता है, जो • तद्भवमोक्षगामी होते हुए भी क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है, किन्तु ऋजुमति के लिए ऐसा कोई नियम नहीं | वह तद्भवमोक्षगामी के भी हो सकता है और अन्य के भी हो सकता है। 5. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 1, सूत्र 24 के भावार्थ में पृष्ठ 20 पर पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने लिखा है " ऋजुमति होकर छूट भी जाता है पर विपुलमति केवलज्ञान के पहले नहीं छूटता।" 6. भावदीपिका लेखक- पं. दीपचन्द जी काशलीवाल ने पृष्ठ 116 पर इसप्रकार कहा है- 'अर विपुलमति तद्भव मोक्षगामी के ही होय' उपरोक्त प्रमाणों से विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी मुनिराज चरमशरीरी ही होते हैं ऐसा स्पष्ट होता है । दिसंबर 2004 जिनभाषित 23 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524292
Book TitleJinabhashita 2004 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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