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________________ बाल वार्ता जीना इसी का नाम है नहीं हैं?' डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन यद्यपि वह अभी बालक ही था, किन्तु जिज्ञासायें | अपने नाती 'अभय' के प्रति था। दार्शनिक की तरह करता था। उसमें अपनों के प्रति ही एक दिन अभय ने दादाजी से पूछा- 'दादाजी ! आप नहीं, परायों के प्रति भी एकजैसा आदरभाव था। जब वह पिताजी के व्यवसाय में साथ क्यों नहीं निभाते? दिनरात परिवार के साथ भोजन करने बैठता, तो सबसे पहले अपने इसी कक्ष में एकांकी हो अध्ययन, स्वाध्याय, सामायिक, दादाजी की थाली में भोजन परोसने के लिए कहता, फिर जप करते रहते हो। क्या आपको पिताजी के कार्य पसंद पिताजी की थाली में भोजन परोसने के लिए कहता और फिर अपनी छोटी-सी मनपसंद थाली में भोजन लेता और बड़े चाव से भोजन करता। वह जूठाभोजन नहीं लेता था, ___ बालक 'अभय' के इस प्रश्न से एक क्षण के लिए तो अत: दादाजी एवं पिताजी भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व उसे दादाजी ठिठके और फिर प्रेम से बोले- 'बेटा ! जिंदगी में अपनी थाली में से कुछ न कुछ खिलाते, मानो जितना सुख और दुःख आते ही रहते हैं। सुख कब दुःख में बदल आदर उस बालक का उनके प्रति था, उतना ही वात्सल्य वे जाये, कह नहीं सकते और कब दुःख के बादल छंट जाये; उसे देते। परस्पर स्नेह-सम्बन्धों का यह सूत्र उस घर की यह भी कहना मुश्किल है। अतः, व्यक्ति को समभाव में शान था, जिसे वे हर स्थिति में जिलाये रखना चाहते थे। जीना चाहिए, ऐसा मैंने एक संत के मुख से सुना था। बालक की मोहक मुस्कान और मधुर वाणी सबके कानों अतः, सुख मिलता रहे और दुःख कभी न आये; इसलिए को रसमय बनाती थी। दादा उसे प्रातः भ्रमण पर साथ ले जीवन के उत्थान के विषय में सोचना मुझे रुचिकर लगा। जाते और उसे णमोकार मंत्र का उच्चारण करने के लिए वैसे भी मैंने अपने पुत्र और तुम्हारे पिता को घरगृहस्थी और कहते। जब वह बालक बड़ी श्रद्धा, तन्मयता और भक्ति के व्यापार के कार्य में इतना कुशल बना दिया है कि अब उन्हें साथ 'णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, मेरे सक्रिय साथ की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।' ऐसा णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं' हाथ जोड़कर कहकर दादाजी कुछ सोचने लगे। सुनाता, तो देखने-सुननेवाले भी उसकी प्रशंसा करते और ___ बालक 'अभय' ने फिर पूछा, 'तो दादा जी! क्या अपने शुभाशीषों से उसे भर देते। दादाजी मन-ही-मन आपको हम लोगों से कोई शिकायत नहीं है?' विचारते कि मेरा यह नाती भी मेरे पुत्र (अपने पिता) की ___नहीं बेटा, शिकायत कैसी? मैंने अपने पारिवारिक तरह संस्कार ग्रहण कर रहा है, अतः मैं निश्चित हूँ कि उत्तरदायित्वों का भलीप्रकार निर्वाह किया है। तुम्हारे पिता हमारा घर धन-धान्य से भरा रहेगा. क्योंकि जिस घर में एवं तुम्हारी बुआ को पढ़ाया, लिखाया, उनका विवाह किया, धर्म और संस्कार रहते हैं, वहाँलौकिक संसाधन कभी कम | उन्हें योग्य बनाया। आज वे अपना व्यवसाय भी कुशलता हो ही नहीं सकते। से चला रहे हैं और गृहस्थी का संचालन भी कुशलता से समय व्यतीत होता गया और दादाजी भी अपने पुत्र कर रहे हैं। वे मेरा भी पूरा ध्यान रखते हैं। बेटा, हमें किसी को समस्त कार्यभार सौंपकर गार्हस्थिक कार्यों के प्रति से कोई शिकायत नहीं है।' उदासीन हो घर के ही एक कक्ष में निवास करने लगे। ___ 'दादाजी ! क्या आपकी जरूरत हमारे पिताजी को निरन्तर स्वाध्याय उनका क्रम बन गया। वह बालक, जिसका नहीं पड़ती?' अभय ने पूछा। नाम अभय था, अब किशोरावस्था में पहुँच गया था। जब भी कहीं जाता, अपने दादाजी के विषय में जरूर चर्चा ___ 'ऐसा नहीं है बेटा। तेरे पिता अपने कार्यों में पारंगत हैं, करता। परिवार के संस्कार ही ऐसे थे कि पिता अपने पुत्रों/ फिर भी यदि उन्हें कहीं मेरे परामर्श की आवश्यकता पड़ती पुत्रियों के प्रति प्रायः उदासीन रहते थे। दादा का ही यह है, तो मैं उन्हें उचित परामर्श देता हूँ। मैं उनके कार्यो में कार्य था कि वे नाती-नातिनों का ध्यान रखते थे। कहते हैं बाधक भी नहीं हूँ और साधक भी नहीं हूँ; किन्तु उनका बुरा नहीं देख सकता, इसलिए कभी-कभी बिना पछे भी 24 दिसंबर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524292
Book TitleJinabhashita 2004 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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