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________________ जिज्ञासा स्थितिकाण्डक घात तथा स्थितिबंधापसरण में क्या अन्तर है? - समाधान - सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति घटने को स्थितिखण्डन या स्थितिकाण्डक घात कहते हैं । जैसे सत्तर कोड़ा-कोड़ी की स्थिति का घटकर अन्तः कोड़ाकोड़ी हो जाना। लेकिन स्थितिबंधापसरण इससे भिन्न है अर्थात् परिणामों की विशुद्धि वशात् नवीन बन्ध को प्राप्त हो रहे कर्मों में स्थितिबन्ध घटता-घटता होना स्थितिबंधापसरण है। निष्कर्ष यह है कि स्थितिकाण्डक घात का सम्बन्ध सत्ता में स्थित कर्मों से है, जबकि स्थितिबंधापसरण का संबंध नवीन बंध को प्राप्त हो रहे कर्मों के स्थितिबंध से है । जिज्ञासा समाधान प्रश्नकर्ता सौ. सविता, नन्दुरवार जिज्ञासा - जन्म - कल्याणक के समय अभिषेक के लिए प्रयोग किये जाने वाले कलशों का माप मुख = 1 योजन, उदर = 4 योजन, ऊँचाई 8 योजन कहा है, तो क्या तीर्थंकर की कितनी ही अवगाहना हो, कलशों का आकार समान ही होता है ? = - समाधान - 'तिलोयपण्णत्ति' अधिकार - 1, गाथा107 से 116 तक किसी वस्तु के नाप के लिए तीन प्रकार अंगुलों का वर्णन है, जो इस प्रकार है - 1. उत्सेधांगुल - एक धनुष प्रमाण अवगाहना वाले मनुष्य के अंगुल को कहते हैं। इससे चारों गतियों के जीवों के शरीर की अवगाहना और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगर आदि का प्रमाण जाना जाता है । 2. प्रमाणांगुल पाँचसौ उत्सेधांगुल प्रमाण भरतचक्रवर्ती के अंगुल को प्रमाणांगुल कहते हैं, इससे दीप, समुद्र, कुलाचल तथा भरतादिक क्षेत्र का प्रमाण हुआ करता है। - 3. आत्मांगुल - जिस-जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो मनुष्य होते हैं, उनके अंगुल का नाम आत्मांगुल है । इससे झारी, कलश, हल, मूसल, चमर, छत्र आदि का प्रमाण जाना जाता है। Jain Education International उपरोक्त प्रमाण से स्पष्ट है कि उत्सेधांगुल से लघुयोजन ( चार कोश का) बनता है तथा प्रमाणांगुल से महायोजन (दो हजार कोश का) बनता है। इन दोनों के माप में कोई बदलाव नहीं होता। जबकि आत्मांगुल छोटा-बड़ा हुआ 22 दिसंबर 2004 जिनभाषित पं. रतनलाल बैनाड़ा करता है। चूंकि कलश का माप आत्मांगुल से किया जाता है, इसलिये जिस तीर्थंकर की जितनी अवगाहना रही होगी उसके अनुसार ही कलशों का माप भी छोटा या बड़ा रहा होगा, यह स्पष्ट होता है। आत्मांगुल के अनुसार कलश भी छोटे या बड़े रहे होंगे। पर उनकी बनावट में 1-4-8 का अनुपात भी रहा होगा, ऐसा मानना चाहिए। जिज्ञासा - क्या केवलज्ञान किसी द्रव्य की प्रथम तथा अंतिम पर्याय को जानता है? समाधान- ज्ञान का कार्य किसी अस्तित्त्व वाले द्रव्य और उसकी पर्याय को जानना है। किसी भी द्रव्य की प्रथम और अंतिम पर्याय का जब अस्तित्त्व ही नहीं है, तो ज्ञान द्वारा उसे जानने का प्रसंग ही नहीं उठता। मान लो हम भगवान महावीर की चर्चा करें, तो यदि उनकी कोई प्रथम पर्याय थी तो उससे पहले क्या उनकी आत्मा अस्तित्त्व में नहीं थी । अतः जब उस आत्मा का आदि ही नहीं है तो उसकी प्रथम पर्याय का अस्तित्त्व कैसे संभव है । अब जबकि उस आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो चुका है, तब भी उसमें प्रति समय नवीन पर्याय का उत्पाद और पूर्व पर्याय का विनाश निरंतर हो रहा है और अनंतानंत काल तक होता रहेगा । अर्थात् उस आत्मा की अंतिम पर्याय कोई होगी ही नहीं । अतः जब किसी भी द्रव्य की प्रथम और अंतिम पर्याय का अस्तित्त्व ही नहीं है, तब वह केवलज्ञान का विषय कैसे बन सकती है। तत्त्वार्थसूत्र अध्याय -1 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' का अर्थ पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज बहुत सुन्दरता से करते हैं। उनका कहना है कि समस्त द्रव्यों की वर्तमान समस्त पर्यायों में तथा भूत और भविष्यत्काल संबंधी अनंतपर्यायों में (समस्त नहीं) केवलज्ञान का विषय संबंध है। इससे स्पष्ट है कि किसी भी द्रव्य की प्रथम और अंतिम पर्याय केवलज्ञान का विषय नहीं होती । जिज्ञासा सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका द्वितीय खण्ड पूर्वार्ध में, पं. टोडरमल जी ने भोगभूमियां जीवों के, आयु के नौ माह शेष रहने पर, त्रिभाग में आयु बन्ध लिखा है, जबकि सुनने में छह माह शेष रहने पर आता है, क्या मानना चाहिए? समाधान - पं. टोडरमल जी ने सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका द्वितीय खण्ड पूर्वार्ध, पृष्ठ 191 पर गोम्मटसार कर्मकाण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524292
Book TitleJinabhashita 2004 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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