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रुपये-पैसे भेंट में लेने लगे और एक स्थान पर मठ बनाकर | नहीं हैं। भट्टारकों को पिच्छी रखना चाहिए या नहीं, इसका . रहने लगे। धीरे-धीरे संयम ने परिग्रहयुक्त सत्ता का रूप ले | निर्णय हमें आगम में ढूँढ़ना चाहिये, किंतु हमने इस प्रश्न लिया। परिग्रह-पिशाच ने भट्टारकों के संयम को हर लिया। | के हल के लिए राजनीति का रंग देकर आगम को गौण
वस्त्र एवं अन्य परिग्रह ग्रहण कर लेने के बाद भी कर परंपरा और अधिकार का तर्क प्रस्तुत करते हुए आतंक भट्टारकों ने अपने आपको श्रावकों के द्वारा मुनि के समान और आंदोलन का सहारा लेने के लिए सम्मेलन आयोजित ही आदर कराना जारी रखा। भट्टारक दीक्षा के समय नग्न किया है। स्वयं भट्टारकों ने अहंकारभरी भाषा में पिच्छी होकर दीक्षा लेते और उसके तुरंत बाद श्रावकों की प्रार्थना पर अपना 700 वर्ष पुराना अधिकार जताते हुए कहा है कि पर वस्त्र धारण कर लेते। यद्यपि पूर्व में भट्टारक शब्द का उन्हें पिच्छी के लिए किसी के सर्टिफिकिट की आवश्कता प्रयोग दिगम्बर मुनियों/आचार्यों के लिए होता था, किंतु नहीं है। मेरा, तो नम्र निवेदन है कि इस दिगम्बर जैनधर्म उनके शिष्य प्रशिष्यों के वस्त्र-धारण कर लेने के बाद भी पर कृपा कीजिए और इस धर्म को, जिसका जीवन ही उनके लिए भट्टारक नाम का ही प्रयोग किया जाता रहा । अपरिग्रहत्व और संयम है, संयम की उपेक्षा कर निर्जीव दिगम्बर भट्टारकों की पिच्छी उनके वस्त्रधारी शिष्यों के मत बनाइए। पिच्छी संयमोपकरण है तथा संयम का चिन्ह हाथ में भी बनी रही।
है। परंपरा के आधार पर इस पर अधिकार जता कर इसकी इस प्रकार भट्टारकों के हाथ में यह पिच्छी गुणवत्ता मर्यादा और गरिमा की हत्या मत कीजिए। यदि मात्र परंपरा के आधार पर अथवा आगम के आधार पर नहीं, अपितु के आधार पर ही कोई मान्यता धर्म की सीमा में आ जाती परंपरा के आधार रहती रही। एक समय जब दिगम्बर हो, तो श्वेताम्बर सम्प्रदाय, तारण सम्प्रदाय भी मान्य ठहरेंगे। मुनियों का पूरे देश में लगभग अभाव-सा हो गया था, तब आज भट्टारक-सम्मेलन में परंपरा के आधार पर पिच्छी सम्पूर्ण भारत में भट्टारकों की गद्दियाँ स्थापित हो गई थीं। रखने के अधिकार की बात कही जा रही है, उसी प्रकार उत्तर भारत में विद्वानों का युग आया, जिन्होंने श्रावकों को कल शिथिलाचारी साधु भी अपना सम्मेलन आयोजित कर भी स्वाध्यायशील बनाया। आगम के आलोक में उन्होंने | परंपरा के आधार पर शिथिलाचार को मान्य ठहराए जाने सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप समझा और पाया कि | की बात कहेंगे। शिथिलाचारी-साधु-परंपरा, तो भट्टारकमुनि व श्रावक के आचार-ग्रंथों में भट्टारक का कोई पद | परंपरा से भी प्राचीन है। आचार्य कुंदकुंद स्वामी के ग्रंथ नहीं है। फलस्वरूप उत्तर भारत में धीरे-धीरे भट्टारक नहीं 'अष्टपाहुड' में मुनियों के शिथिलाचार के विरुद्ध उपलब्ध रहे, किंतु दक्षिण भारत में श्रावकों के आगम-ज्ञान के | विस्तृत वर्णन यह सिद्ध करता है कि उस समय भी मुनियों अभाव में भट्टारकों का वर्चस्व बना रहा। पूर्वकाल में | में शिथिलाचार व्याप्त था। यह दिगम्बर जैन समाज का भट्टारक शब्द का प्रयोग उत्कृष्ट मुनि के लिए होता था, दुर्भाग्य है कि आगम-विरुद्ध-परंपराओं के संरक्षण के किंतु आज के परिग्रहधारी मठाधीश भट्टारकों का रूप लिए हमने आगम की उपेक्षा कर सम्मेलन और आंदोलन स्पष्टतः आगम-विरुद्ध है। विरोध भट्टारकों का नहीं है, | का सहारा लेने की राजनीति को अपनाना प्रारंभ किया है। उनके आगम-विरुद्ध भेष का विरोध है।
दिगम्बर जैन समाज ने मुनि और श्रावकों के चारित्रिक दिगम्बर जैनधर्म के महान प्रभावक आचार्य कुंदकुंददेव दोषों को दूर करने के लिए, तो समय-समय पर सभा ने, जिनको हम भगवान महावीर एवं गौतमगणधर के पश्चात् सम्मेलनों में चिंता व्यक्त की है, परंतु दिगम्बर जैन धर्म के मंगलरूप में स्मरण करते हैं, मयूर-पिच्छी को साधु का इतिहास में संभवतः यह पहला सम्मेलन है, जिसमें आगमचिन्ह या लिंग बताया है और घोषणा की है कि दिगम्बर विरुद्ध परंपराओं के समर्थन में धर्म की व्यवस्था के स्थान मुनि, आर्यिका और उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक, क्षुल्लक) ये पर परंपरा के आधार पर अधिकार का तर्क उठाया गया है। तीन ही लिंग हैं, जैन दर्शन में चौथा लिंग नहीं है। मूलाचार यह कहा गया है कि भट्टारकों ने जैन-संस्कृति की में स्वयंपतित मयूर-पंखों से निर्मित पिच्छी को योगियों का रक्षा और इस आधार पर सभी भट्टारकों को संस्कृतिचिन्ह बताया है। भावप्राभृत की टीका में कहा गया है कि विषयक पदवियाँ प्रदान की गई हैं। वस्तुतः पूर्वकालीन पिच्छीसहित निर्मल नग्नरूप जिनमुद्रा होती है। वर्तमान दिगम्बर भट्टारकों द्वारा, तो अवश्य साहित्य-सृजन के रूप भट्टारक न मुनि हैं और न ही ऐलक -क्षुल्लक हैं। अतः, में संस्कृति-संरक्षण हुआ था, किंतु पश्चाद्वर्ती भट्टारकों ने आगम की आज्ञा के अनुसार वे पिच्छी रखने के अधिकारी | वस्त्र आदि परिग्रह धारणकर अपरिग्रह एवं वीतरागता
12 दिसंबर 2004 जिनभाषित
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