________________
आधारित दिगम्बर जैन-संस्कृति को क्षति ही पहुँचाई है। इन्होंने श्रावकों को आगम-अध्ययन से वंचित रखते हुए मंत्र-तंत्र आदि बाह्य क्रियाकांड में उलझाए रखा और इस प्रकार जैन-तत्त्व-ज्ञान के प्रचार को भी अवरुद्ध ही किया है। वास्तव में पश्चाद्वर्ती भट्टारकों द्वारा दिगम्बर जैन संस्कृति की महनीय हानि हुई है। दिगम्बर जैनमंदिरों व तीर्थ क्षेत्रों की भट्टारकों द्वारा की गई सुरक्षा की बात कदाचिद् स्वीकार की जाय, तो क्या धर्मायतनों की सुरक्षा करनेवालों को पिच्छी रखकर मुनिवत् अपने को जगदगुरु के रूप में प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है? उन्होंने जो कुछ अच्छा किया, वह प्रशंसनीय है। अनेक श्रावकों ने समय-समय पर भी अनेक मूर्तियों, मंदिरों और तीर्थ क्षेत्रों का निर्माण किया और उनकी सुरक्षा भी की, तो क्या कभी उनको समाज द्वारा पिच्छी रखने का अधिकार देकर मुनिवत् आदर किया गया?
यह अकाट्य ऐतिहासिक सत्य है कि वर्तमान भट्टारकों का भेष और चर्या सर्वथा आगमविरुद्ध है। उनका आगम के अनुसार पद-निर्धारण होकर उनका यथोचित आदर
सत्कार किया जाय, इसके लिए दिगम्बर जैन आचार्य, विद्वान् एवं प्रमुख श्रेष्ठिगण मिलबैठकर आगमसम्मत निर्णय
लेवें, तो यह धर्म की प्रभावना का महान् कार्य होगा। ___भट्टारकों के वर्तमान पद, भेष और पिच्छी के समर्थक बंधुओं और स्वयं भट्टारक महोदयों से मेरा विनम्र सुझाव है कि हम दिगंबर जैन धर्म के उन्नायक आचार्य कुंदकुंद द्वारा स्थापित मुनि और श्रावकों की आचारसंहिता की कठोर पालना के आधार पर दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना और रक्षा करने की पवित्र भावना से भट्टारकों के समीचीन स्वरूप-निर्धारण पर विचार करने के लिए पू. आचार्य वर्द्धमान सागर जी महाराज के सान्निध्य में वात्सल्यपूर्ण वातवरण में एक भट्टारक-सुधार-सम्मेलन आयोजित करें, जिसमें परंपरागत-अधिकारों के अहंकार को त्यागकर तत्त्वश्रद्धा, कर्त्तव्यबोध, आत्म-कल्याण और धर्मप्रभावना की उदात्त भावना से प्रेरित हो गरिमामय निर्णय करें। मेरे सुझाव पर सकारात्मक प्रतिक्रिया की आशा है। लुहाड़िया सदन, जयपुर रोड, मदनगंज-किशनगढ़,
305801 (जिला-अजमेर) राजस्थान
शोध-सन्दर्भ का लोकार्पण सूरत। परमपूज्य मुनि श्री सुधासागर जी महाराज के पावन सान्निध्य में तथा दो सौ से अधिक जैन विद्वानों की सहभागिता में आयोजित विशाल श्रावकाचार संगोष्ठी के अवसर पर डॉ. कपूरचन्द्र जैन, खतौली द्वारा सम्पादित 'प्राकृत एवं जैन-विद्या शोध-सन्दर्भ' के तृतीय संस्करण का लोकार्पण सुप्रसिद्ध समाजसेवी जैन-गौरव श्रावकरत्न श्री ओमप्रकाश जैन एवं श्री कमलेश गांधी ने किया। इस पुस्तक में भारतीय विश्वविद्यालयों में अब तक हुए 1100 जैन शोधप्रबन्धों तथा विदेशी विश्वविद्यालयों में हुए 131 शोधप्रबन्धों का परिचय है। विदेशों की जानकारी डॉ. नन्दलाल जैन, रीवा द्वारा दी गई है। यह पुस्तक इस सदी के महानतम दिगम्बर जैनाचार्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज को समर्पित है। इसमें प्रकाशन सहयोग डॉ. नटुभाई शाह, अध्यक्ष, वर्ल्ड काउंसिल ऑफ जैन एकेडेमीज, लन्दन ने किया है। प्रत्येक शोध-प्रबंध का नाम, लेखक का नाम, पता, विश्वविद्यालय, वर्ष, निदेशक का नाम आदि के साथ-साथ लगभग 250 शोध-प्रबन्धों के विस्तृत परिचय में उनके अध्यायों के नाम, मूल्य आदि दिये गये हैं। पुस्तक इस शैली में तैयार की गई है कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों के पाठक इसका भरपूर लाभ उठा सकें। पुस्तक का प्रकाशन श्री कैलाश चन्द जैन स्मृति न्यास, खतौली ने किया है और मूल्य मात्र 200 रुपये है। यह पुस्तक सभी विश्वविद्यालयों/कालिजों/मंदिरों/पुस्तकालयों/शोध निदेशकों शोधकर्ताओं तथा भविष्य में जैन विधाओं पर शोध करने/कराने व जैन शोध में प्रोत्साहन देने वालों के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह पुस्तक 31 मार्च, 2005 तक मात्र 100 रुपये (60+40 डाक/कोरियर/पैकिंग व्यय) का एम.ओ. भेजकर निम्न पते से मंगा सकते हैं - डॉ. ज्योति जैन, सर्वोदय फाउंडेशन, रेलवे रोड, खतौली, 251201, जिला मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) फोन नं. 01396-273339। पुस्तक मोतीलाल बनारसीदास 41, यू.ए., बैंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली, 110007, फोन नं. 011-23858335 से भी उपलब्ध है।
डॉ. ज्योति जैन
दिसंबर 2004 जिनभाषित 13
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only