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भट्टारक सम्मेलन
मूलचन्द लुहाड़िया जब यह जानकारी प्राप्त हुई कि आचार्य देवनंदि जी पहली बात, तो यह है कि उक्त दोनों घटनाओं में महराज के सान्निध्य में उनकी जन्म-जयंती के अवसर पर भट्टारकों के स्वरूप-निर्धारण और आरंभ-परिग्रह एवं वस्त्रजटवाड़ा में एक भट्टारक सम्मेलन आयोजित किया जा सहित पिच्छी नहीं रखी जाने की आगमसम्मत बात कही रहा है, तब मैंने यह समझा था कि सम्मेलन में भट्टारक गई है। इसमें भट्टारकों का विरोध कहाँ है? स्वरूप-निर्धारण संस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर उसके क्रमशः हासोन्मुखी सभी दृष्टियों से भट्टारकों के हित में है। योग्यता के अभाव गति से गमन करते हुए वर्तमान स्वरूप तक की यात्रा पर, में पिच्छी रखना भी उनके हित में है। आगमानुकूल आचरणभट्टारक पद के आगमानुकूल स्वरूप-निर्धारण आदि व्यवस्था सभी के हित में है। विरोध का हव्वा खड़ा करके महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ठोस चर्चाएँ होंगी। किंतु सम्मेलन ऐसा भयानक चित्र उपस्थित करने का प्रयास किया जा के बारे में समाचार-पत्रों में विवरण पढ़कर अत्यंत खेद रहा है जिससे समाज का ध्यान आगम की आचरणहुआ। यह बताया गया कि भट्टारक सम्मेलन की प्रेरणा व्यवस्था की मूल बात पर नहीं जा सके। महासभाध्यक्ष श्री आचार्य श्री देवनंदि जी महाराज से प्राप्त हुई। कहा गया सेठी जी ने कहा कि धर्म के दो तरीके हैं, एक आगम और कि वर्तमान में भट्टारकों पर कुछ संतों एवं सम्पादकों द्वारा दूसरा परम्परा। बिलकुल ठीक बात कही सेठी जी ने। सतत् प्रहार किये जा रहे हैं, उनको देखते हुए यह सम्मेलन प्रकारांतर से उन्होंने इस सत्य को स्वीकार कर लिया कि आयोजित किया गया है। श्री निर्मल कुमार सेठी ने कहा भट्टारक-संस्था आगम-सम्मत, तो नहीं है, किन्तु 600कि मेरी चर्चा इस संबंध में एक प्रमुख आचार्य से हुई और | 700 वर्षों से चली आ रही परंपरा है। जो परंपरा आगममैंने उनसे निवेदन किया कि परंपरा से पिच्छी भट्टारकों के विरुद्ध है, वह चाहे कितनी भी पुरानी हो, मान्य नहीं हो पास हैं, इसका विरोध क्यों कर रहे हैं? उक्त कथनों से सकती और उसको बदल देना ही धर्म है। आचार्य शांतिसागर भट्टारक-सम्मेलन के आयोजन की पृष्ठभूमि एवं उद्देश्य जी ने श्रावकों द्वारा मिथ्या देवी-देवताओं को पूजने की समझ में आता है। इन्दौर चातुर्मास के समय पू. आचार्य पुरानी परंपराओं को, तोड़ा है और साधुओं के शिथिलाचार श्री विद्यासागर जी महाराज ने कुछ स्वाध्यायशील श्रावकों की परंपराओं के विरुद्ध आवाज उठाई है। आचार्य कुंदकुंद द्वारा भट्टारकों द्वारा रखी जा रही पिच्छी के बारे में प्रश्न ने साधुओं के शिथिलाचार की परंपराओं की जोरदार भर्त्सना उठाये जाने पर कहा था कि वस्त्र एवं आरंभ-परिग्रह की है। मिथ्यादर्शन, मिथ्या चारित्र की अनादिकालीन सहित मठाधीश भट्टारकों को आगम के अनुसार पिच्छी परंपराओं को, तोड़कर सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को नहीं रखना चाहिए। पू. आचार्यश्री ने यह भी कहा था कि प्राप्त करने का उपदेश जिनवाणी हमें दे रही है। श्री सेठी चरणानुयोग के ग्रंथों के अनुसार भट्टारकों के पद का निर्धारण जी ने मिथ्या परंपराओं के संरक्षण के प्रति अति उत्साहित भी होना चाहिए और उन्हें उस पद के अनुरूप चारित्र का होकर सम्मेलन में कहा है कि हम इस (भट्टारक) परंपरा पालन करना चाहिए।
पर कुठाराघात किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। आपने. ___उसके बाद प्रसिद्ध इतिहास-विद्वान् स्व. नाथूराम जी तो सदैव उन शिथिलाचारी साधुओं को अपना पूरा संरक्षण प्रेमी द्वारा लिखित और दक्षिण भारत जैन सभा द्वारा मराठी देकर ही इस महान वीतराग धर्म का सरंक्षण करने का भ्रम में प्रकाशित “भट्टारक" पुस्तक का हिंदी में "पुनः पाला है। फिर भट्टारकों के आगमानुकूल स्वरूप-निर्धारण प्रकाशन" करा कर उसको समाज के विद्वानों और श्रीमानों की बात आप कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? को इस निवेदन के साथ भेजा गया कि भट्रारकों के संबंध इतिहास का यह तथ्य निर्विवादरूप से मान्य है कि में वे पुस्तक के साथ भेजी गई प्रश्नावली में उल्लिखित परिस्थितिवश दिगम्बर मुनि पहले कभी-कभी अधोवस्त्र बिंदुओं पर अपनी मूल्यवान सम्मति भिजवाएँ। ऐसा प्रतीत अथवा लंगोट और फिर धीरे-धीरे पूरे वस्त्र धारण करने होता है कि उक्त दो घटनाओं को भट्टारकों का विरोध लगे। उस समय नग्न दिगम्बर मुनियों का अभाव-सा हो समझकर उसके विरोध में यह भट्टारक-सम्मेलन आयोजित गया और इन वस्त्रधारी भट्टारकों को ही मुनि के समान किया गया है।
मान्यता प्राप्त होती रही। भट्टारक समय बीतने के साथ
दिसंबर 2004 जिनभाषित 11
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