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________________ भी अपने संगठन तो हैं, परन्तु वे सभी समाज की उपेक्षा के शिकार हैं। फण्ड की कमी की समस्या हमेशा उनके सामने रहती है। सभा-सम्मेलन करने के लिए उन्हें भी किसी साधु की कृपा का ही सहारा रहता है। विद्यमान प्रकरण के समाधान की दिशा में हमें एक पौराणिक प्रसंग याद आ रहा है। पद्मपुराण में हम सबने पढ़ा है कि सीताजी जब लंका से अयोध्या वापिस आ गईं, तब सोचा गया था कि उनके दुर्दिनों का अब अन्त हो गया है। तभी एक घटना घट गई। एक स्त्री, पति-गृह से पति की अनुमति लिए बिना, प्रसंगवश, किसी निकट सम्बन्धी के यहाँ चली गई। दो-चार दिन बाद जब उसका लौटना हुआ, तो उसके पति ने यह कहकर उसके लिए घर के दरवाजे बन्द कर लिए कि वह कोई राम थोड़े ही है, जिसने रावण के यहाँ रहने पर भी सीता को घर में रख लिया। यह बात एक कान से दूसरे कान तक फैलतेफैलते श्री राम के कानों तक भी जा पहुँची। उन्हें सीता के शील या सतीत्व में कोई शंका नहीं थी, परन्तु राजधर्म और राजनीति की शुचिता या मर्यादा की रक्षा के लिए सीता के परित्याग का कठोर निर्णय लेने में उन्हें कोई हिचक नहीं हुई। उनके आदेशानुसार सेनापति कृतान्तवक्र, तीर्थयात्रा बहाने रथ पर बिठाकर, सीता को बियावान् वन में छोड़ आये। श्री राम को लोकापवाद से डर लगता था, किन्तु आज के साधु को धर्मापवाद से डर क्यों नहीं लगता - यह विचारणीय है । हमारा तो यह स्पष्ट मत है कि धर्म के अपवाद एवं • साधु- संघ की अपकीर्ति से बचने के लिए अब आर्यिका माताओं का स्वतंत्र संघ बनाने का समय आ गया है। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के संघ की प्रशस्त परम्परा का अनुकरण ही धर्म को बदनामी से बचा सकता है। पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमती एवं विशुद्धमती माताओं के स्वतन्त्र एवं निर्मल-निष्कलंक छविवाले आर्यिका संघों के आदर्श भी हमारे सामने हैं। आज से कुछ वर्ष पहले धर्मापवाद के ऐसे ही एक अप्रिय प्रसंग के उपस्थित होने पर सिरसागंज (उ.प्र.) की महती सभा में देश के कोनेकोने से समागत भक्तजन-समूह ने इसी आशय का प्रस्ताव पारित किया था, परन्तु कोई भी उस पर अमल करने के 10 दिसंबर 2004 जिनभाषित लिए तैयार नहीं है। जिन पर आरोपों की बौछार हो रही है, वे भी नहीं। लगता है कि कुछ को छीछालेदर कराने में ही मजा आता है। आज ऋषि, मुनि, यति और अनगार साधुओं के चतुर्विध-संघ की आदर्श-परम्परा को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। Jain Education International श्रीराम से अलग होकर जैसे सीता जी के व्यक्तित्व में निखार आता गया, वैसे ही स्वतन्त्र - विहार की अनुमति मिलने पर आर्यिकाओं का यश भी बहुत बढ़ेगा। उनके यश-विस्तार से दीक्षा - गुरु के सुयश में भी वृद्धि होगी ही । वर्तमान की अपयशभरी चकल्लस से आज आर्यिकाओं का जीवन कुण्ठाग्रस्त होकर रह गया है। घुटन में जीना भी कोई जीना है क्या? अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अब आर्यिकामाताओं को स्वयं भी इस ओर पहल करनी चाहिए । साधु -संघ और धर्म की निर्मल कीर्ति पर दाग न लगे - यह देखने का दायित्व मुख्यतः हमारे पूज्य आचार्यों का है। यदि धर्म के अपयश का कोई भी कारण उपस्थित हो, तो किसी के न- पूछने पर भी आचार्यों को संघ और समाज का मार्गदर्शन करना चाहिए। कोई साधु या श्रावक भले ही निर्दोष भी हो, किन्तु यदि उसके कारण से निर्मल जिनशासन की अपकीर्ति होती हो, तो उसे भी प्रायश्चित्त लेना चाहिए। एक नीतिपरक श्लोक को उद्धृत कर हम अपनी चर्चा को विराम दे रहे हैं ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । दण्डस्यैव भयादेते मनुष्याः वर्त्मनि स्थिताः ॥ अर्थात् ब्रह्मचारी, गृहस्थ (नागरिक), वानप्रस्थ और सन्यासी, ये सभी दण्ड के भय से ही अपने-अपने मार्ग में स्थित रहते हैं । आचार्यों के मौन रहने पर समाज के कर्णधारों एवं प्रबुद्धजनों का यह कर्तव्य है कि वे धर्म की अप्रभावना को सहन न करें तथा उसकी रोकथाम के लिए कठोर कदम उठायें। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो अपयश की यह श्रृंखला अमरबेल की तरह फूलेगी - फलेगी और फैलेगी। वर्तमान प्रकरण हमारे लिए एक चुनौती भी है और चेतावनी भी । परिणामों को सदा अपने दोषों को छानने में लगाना चाहिये दूसरों के दोषों को देखने में नहीं । आचार्य श्री विद्यासागर जी अध्यक्ष श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि परिषद सम्पर्कसूत्र - 104, नई बस्ती, फिरोजाबाद (उ.प्र.) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524292
Book TitleJinabhashita 2004 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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