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धर्म की अप्रभावना असह्य अपकीर्ति से बचाव का एक ही उपाय
पं. नरेन्द्र प्रकाश जैन सम्पादक : 'जैन गजट'
गत 6 एवं 7 नवम्बर को दूरदर्शन के 'आज तक' | हैं, किन्तु किसी निर्णय को क्रियान्वित करने या कराने की चैनल पर एक दिगम्बराचार्य की जो छवि प्रस्तुत हुई, तत्परता या संकल्पबद्धता का उनमें अभाव होता है। उसके बारे में जानकर हमें वेदना तो बहुत हुई, परन्तु आश्चर्य
एक नीति-वाक्य है- "अकीर्तिः परमल्पापि याति बिल्कुल नहीं हुआ। हमारी वेदना का कारण है-निर्मल
वृद्धिमुपेक्षिता" अर्थात् थोड़ी-सी भी अपकीर्ति उपेक्षा जिनशासन की भारी अप्रभावना या अपकीर्ति तथा दिनोंदिन
करने पर बढ़ जाती है। पिछले दोहजार वर्षों में किसी साधु बढ़ती अन्धश्रद्धा के चलते समाज के शीर्ष-नेतृत्व एवं
पर लांछन लगाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता था, पर जनसाधारण के द्वारा उसे अत्यन्त उपेक्षा के साथ ग्रहण
आज सीना तानकर कुछ लोग यह कार्य कर रहे हैं। इसके किया जाना। पिछले एक दशक में कुछ साधुओं में
लिए हम सबकी उपेक्षा ही जिम्मेदार है। समाज और धर्म स्वेच्छाचार और शिथिलाचार बढा ही है। कहीं-कहीं उसने
की अपकीर्ति के लिए कोई एक पक्ष नहीं, आरोपक और अनाचार की सीमा का स्पर्श किया है। इधर साधुओं की
आरोपी दोनों ही जिम्मेदार हैं, परन्तु हम इसे नजरअन्दाज संख्या में तो आशातीत वृद्धि हुई है, किन्तु गुणवत्ता में भारी
कर रहे हैं। किसी भी समस्या की अनदेखी करने या फिर कमी आई है। पहले के संघों में सैकड़ों की संख्या में साधु
उसकी लीपापोती करने की प्रवृत्ति उपेक्षा की ही उपज है। होते थे और कोई भी साधु संघके अनुशासन का उल्लंघन
इन दिनों भी समाज में निन्दा या भर्त्सना के प्रस्ताव पारित नहीं करता था। सभी साधु अपने आचार्य की आज्ञा के
करने की उतावली और होड़ तो दिख रही है, किन्तु कोई धागे से बँधे रहते थे। परन्तु आज तो दस-बीस साधुओं को
भी संस्था ठोस या सकारात्मक कदम उठाने का साहस सँभालना भी एक आचार्य के लिए कठिन हो गया है।
नहीं जुटा पा रही है। वर्तमान प्रकरण में हम एक पक्ष की साधुसंघ में बढ़ती जा रही अनुशासनहीनता और गिरावट
फूहड़ भाषा और उसके पीछे छिपी रंजिश को देख-सुनकर का कवरेज मीडिया द्वारा न हो, आज के संचारप्रधान युग
तो तिलमिला रहे हैं, किन्तु दूसरे पक्ष की कमियों और में यह कैसे सम्भव है? हम. तो अब बदनामी के भी
कमजोरियों की चर्चा करना भी पसन्द नहीं करते हैं। हमने अभ्यस्त हो गये हैं, इसलिए ऐसी किसी भी घटना से
तो देखा है कि जिस साधु पर जितनी बड़ी मात्रा में लांछन किसी को कोई आश्चर्य नहीं होता।
लगते हैं, वह उतना ही ज्यादा महिमा-मण्डित होने लगता ___ शीलसम्बन्धी प्रकरण तो बहुत ही संवेदनशील होते है। आरोपित होना भी साधु के लिए आजकल 'स्टेटस हैं। इनके विषय में किसी अन्तिम नतीजे
सिम्बल' बन गया है। लगता है कि कलियुग में चारित्रदुष्कर कार्य है। कोई संस्था या समिति इसकी जाँच भी चक्रवर्ती कहलाने की शायद यही कसौटी बची है। दुर्भाग्य करना चाहे, तो उसे अपने कदम बहु
हैं यह समाज का! रखने होते हैं। आरोप लगानेवालों के विपरीत-राय देने पर
विद्वान् से लोग अपेक्षा तो बहुत करते हैं, परन्तु अन्त समिति के मुखर सदस्यों को उनके अपशब्द सुनने पड़ते
तक उनका साथ देनेवालों का हमेशा टोटा रहता है। 'चढ़ हैं। यदि साधु के बारे में कुछ प्रतिकूल कह दिया जाए, तो
जा बेटा सूली पर, भली करेंगे राम' की कहावत का उनके विवेकशून्य भक्त उनका मुण्डन करने को तैयार रहते
अनुभव तीन-तीन मुकदमे झेल चुकने के बाद हमें अच्छी हैं। इस स्थिति में सही जाँच या तो हो ही नहीं पाती और
तरह से हो गया है। वैसे भी विद्वान् कोई सुझाव ही दे यदि हो भी जाए, तो श्रद्धालु भक्तों (?) की भीड़ उसे
सकता है, उसके क्रियान्वयन की शक्ति तो समाज या मानने को तैयार नहीं होती। अखिल भारतीय स्तर की
श्रीमन्तों द्वारा पोषित संस्थाओं के ही पास है। विद्वानों के संस्थाओं की स्थिति भी यह है कि वे शोर तो बहुत करती
दिसंबर 2004 जिनभाषित 9
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