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में लेते हैं। श्री नीरज जी संभवतः भूल रहे हैं कि मिथ्यात्व पुराना | की भक्ति उल्लेखनीय है। यदि मात्र अष्ट द्रव्य से पूजा नहीं करने होता है और सम्यक्त्व सदा ही नया उदित होता है। अतः प्रत्येक | से ही आर्यिका माताजी चतुर्विधि संघ सेअलग हो जाती हैं और पुरानी परंपरा अच्छी ही होती है उनकी यह धारणा सही नहीं है। | संघ त्रिविध रह जाता है तो श्रावक श्राविकाओं की भी पूजा नहीं
आज मैं यह बात प्रकट किए बिना नहीं रह पा रहा हूँ कि | किए जाने से, जो आपको भी करना इष्ट नहीं है, आपकी मान्यतानुसार आज के भट्टारकों में स्वाध्यायशील, आगमज्ञ मनीषी विद्वान | द्विविध संघ ही रह जाना चाहिए। अविनय एवं अति विनय भट्टारक चारूकीर्ति जी से मेरी गत वर्ष हुई चर्चा के प्रसंग में मैंने | (विनयातिरेक) दोनों ही अज्ञान की उपज है। हमें जिनवाणी ने पाया कि वे भट्टारकों के आगमानुकूल स्वरूप निर्धारण के बारे में विभिन्न पदों पर स्थित संयमियों के विवेक पूर्वक यथायोग्य विनय गंभीरता से चिंतन करते हैं और प्रमुख धर्माचार्यों के बीच में | सत्कार का उपदेश दिया है। बैठकर इस पर चर्चा कर कोई आगम सम्मत स्वीकारणीय निर्णय | पक्षव्यामोह और स्वार्थ साधना की मजबूरी में लिखी इस पर पहुँचना चाहते हैं। मैं नम्रता किंतु दृढ़तापूर्वक यह कहना पुस्तक में यद्यपि आगम और सतर्क का कोई आधार नहीं पाया चाहता हूँ कि माननीय नीरज जी एवं महासभा साधु संस्था में | जाता है और इस कारण इसका विस्तृत उत्तर लिखने के लिए मैं परिस्थितियों वश आए दोषों के रूप में जन्मी भट्टारक परंपरा का | अधिक उत्साहित नहीं हूँ। तथापि यह विचार आता है कि धर्म अंधसमर्थन करके भट्टारक महोदयों के सच्चे हित चिंतक नहीं | की हानि के प्रसंग में धर्म श्रद्धालु बंधुओं के समक्ष सही वस्तुस्थिति अपितु अहित चिंतक बन रहे हैं। किसी के द्वारा अपनी सुविधानुसार | रखी ही जानी चाहिए। पूर्व में कतिपय पाठकों का यह मत सामने चलाई गई परंपरा में यदि आगम वर्णित आचार संहिता से विपरीतता | आया था कि इस पत्रिका में ऐसे पारस्परिक विवादों को स्थान है तो उसमें आगम सम्मत सुधार करना ही हितकारी है। आगम | नहीं दिया जाना चाहिए। अस्तुः पुस्तक का बिंदुवार उत्तर देने के सर्वोपरि है।
| लिए मैं सुधी पाठकों की आदेशात्मक सम्मति चाहता हूँ। मेरा श्री नीरज जी छल पूर्ण भाषा के द्वारा मिथ्या प्ररूपणा करने व्यक्तिगत मत यह है कि मतभेद के बिंदुओं पर हमें आगम में कितने निष्णात एवं निडर हो गए हैं यह आपका शीर्षक | आधारित वीतराग चर्चा करने से परहेज नहीं करना चाहिए। पर 'आर्यिका पूज्य नहीं है,' अच्छी तरह बता रहा है। श्री बैनाड़ा जी चर्चाएँ तभी फलप्रद होंगी जब हम अपने मानस को आग्रह मुक्त ने आर्यिकाओं की मुनिराज के सदृश अष्ट द्रव्य से पूजा को उचित | कर आगम की बात स्वीकार करने योग्य बनाएँ। पाठकों की राय नहीं बताया है किंतु उनकी पदानुकूल विनय वंदना रूप पूजा तो | जानने के पश्चात् ही में उत्तर लिखूगा। श्रावक का कर्तव्य है ही। मैं तो जोर देकर यह कहना चाहता हूँ मैं माननीय नीरज जी से किए गए मेरे पूर्व निवेदन को कि श्री बैनाड़ा जी एवं अन्य आर्यिका माताजी की अष्ट द्रव्य से | दोहराता हूँ कि वे महासभा की टीम के साथ प.पू. आचार्य पूजा करना विधेय नहीं मानने वाले लोग,आप सब पूजा करने | वर्द्धमान सागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में बैठकर चर्चा करें वाले लोगों से आर्यिका माताजी की अधिक विनय एवं भक्ति और हम सब मिलकर उनसे इस विषय पर चरणानुयोग आगम के करते हैं। आर्यिका माताजी की सर्वाधिक संख्या वाले इस संघ की | अनुकूल दिशा निर्देश प्राप्त करें। क्या हम ऐसा कर सकते हैं? माताजी के द्वारा की जा रही धर्म प्रभावना और उनके प्रति श्रावकों
मदनगढ़ - किशनगढ़
(राजस्थान)
आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित
* जो शाश्वत है उसी का अनुभव किया जा सकता है। जो नश्वर है पकड़ते-पकड़ते ही चला जाने वाला है उसका अनुभव नहीं किया जा सकता। कहने का मतलब है द्रव्य दृष्टि रखकर निर्विकल्प होने की साधना करो, पर्यायों में आसक्त (उलझकर) होकर संकल्प विकल्प का जाल मत बनाओ।
* जो विश्व को जानने का प्रयास करेगा वह सर्वज्ञ बन नहीं सकता किन्तु जो स्वयं को जानने का प्रयास करेगा वह स्वयं का तो जान ही लेगा साथ ही सर्वज्ञ भी बन जायेगा।
* सर्वज्ञत्व आत्मा का स्वभाव नहीं है यह उनके उज्जवल ज्ञान की परिणति मात्र है। अत: व्यवहार नय की अपेक्षा से कहा जाता है कि भगवान् सबको जानते हैं किन्तु निश्चय नयसे ज्ञेय-ज्ञायक संबंध तो अपना, अपने को, अपने साथ, अपने लिये, अपने से, अपने में जानने देखने से सिद्ध होता है। ऐसा समयसार का व्याख्यान है।
'सागर बूंद समाय'
18 नवम्बर 2004 जिनभाषित
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