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________________ रहे दोष, दोष ही रहते है, गुण नहीं हो जाते हैं। सैंकड़ों वर्षों से नहीं अनादि काल से जीव मिथ्यात्व और कषाय के दोषों से युक्त रहता आया है। जिस दिन वे दोष इसको दोष प्रतीत होने लगते हैं और वह पुरुषार्थ पूर्वक उन दोषों को छोड़ देता है वही दिन उसके जीवन में सौभाग्य के प्रारंभ का दिन होता है। पुस्तक में आचार्य शांतिसागर जी का नाम लेकर आगम विरूद्ध बात को मनवाने के लिए पाठकों को गुमराह करने का षडयंत्र किया गया है। प. पू. आचार्य शांतिसागर जी के उपदेश को ध्यान से पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि पू. आचार्य श्री द्वारा भट्टारकों को मान्यता देने की बात तो बहुत दूर रही, उन्होंने अपने उपदेश में भट्टारकों को अपना भेष आगमानुकूल करने के लिए प्रेरणा दी है। उन्होंने कहा 'धर्म का रक्षण करो, समाज का रक्षण करो और साधु संतों का रक्षण करो' ये वे बाते हैं जिन्हें भट्टारक नहीं करते हैं, इसीलिए उनको यह उपदेश दिया है। इस उपदेश में परोक्ष रूप से आचार्य श्री ने वह सब कह दिया जो वे उनको कहना चाहते थे । आगम विरूद्ध भेष धारण कर अपने को मुनि कहलाने वालों को धर्म का रक्षण करने का उपदेश दिया क्योंकि वे अपने भेष से दि. जैन धर्म का अवर्णवादकर रहे हैं। पू. आचार्य श्री ने सल्लेखना के समय अपने उपदेश में सबसे अधिक बल संयम धारण करने पर दिया था। चारित्र चक्रवर्ती पुस्तक के पृष्ठ 343 से 349 तक में बार-बार संयम धारण करने की ही बात कही है। इसी प्रसंग में भट्टारक गण को भी उपदेश दिया है । पू. आचार्य श्री जिन्हें मुनि चर्या में तनिक भी शिथिलाचार सहन नहीं होता था, जिन्होंने पूरा जीवन ग्रहस्थों और मुनियों को आगम के चरणानुयोग पक्ष के अनुसार अपना आचरण बनाने की प्रेरणा देते रहने में बिताया, वे आगम चक्षु महान आचार्य आगम विरूद्ध भेष धारणकर असंयम एवं परिग्रह के साथ पिच्छी रखने वाले भट्टारकों को कैसे मान्यता प्रदान कर सकते थे? आशीर्वाद तो करूणाशील आचार्य महाराज मिथ्यादृष्टियों दुराचारियों को भी देते हैं। क्या आशीर्वाद देने मात्र से आचार्य महाराज द्वारा दुराचारियों के दुराचार को उचित मान लिया जा सकता है? दिगम्बर जैन धर्म के उन्नायक तीर्थंकर सदृश मान्यता प्राप्त महान आचार्य कुंदकुंद महाराज ने 2000 वर्ष पूर्व स्पष्ट घोषणा की थी कि दि. जैन धर्म में दि. मुनि, आर्यिका एवं क्षुल्लक ऐलक के अतिरिक्त कोई चौथा लिंग नहीं है, नहीं है, नहीं है। यह भट्टारक कौनसा लिंग है? श्री नीरज जी कम से कम यह तो बताएँ कि ये मुनि हैं या श्रावक हैं। यदि श्रावक हैं तो इनकी कौनसी प्रतिमा है ? वस्तुतः नीरज जी का यह कथन कि पू. महाराज जी ने उन्हें उपदेश देकर भट्टारकों को मान्यता प्रदान की थी सरासर उन आगम चक्षु, आगम भीरू महान आचार्य श्री का निरा अवर्णवाद है। भट्टारकगण स्वयं पू. आचार्य श्री के दर्शन हेतु आए थेऔर वहाँ सेवा में रहे थे तो उन्हें दुतकारा तो नहीं जा सकता था। किंतु ऐसे आगमानिष्ठ आचार्य श्री जिन्होंने अपने गुरू का शिथिल आचरण भी सहन नहीं किया था, भट्टारकों Jain Education International के आगम विरूद्ध पद और भेष को वे कैसे मान्यता प्रदान कर सकते थे? अन्यत्र उन्होंने स्पष्टतः भट्टारकों द्वारा श्रावकों से धन वसूल कर निर्माल्य द्रव्य स्वयं खाने की आलोचना करते हुए उनका आहार ग्रहण करना भी स्वीकार नहीं किया। भट्टारकों के आचरण की वह स्पष्ट आलोचना आचार्य श्री द्वारा उनकी धार्मिक मान्यता को नकारने का पर्याप्त साक्ष्य है। श्री नीरज जी ने अपनी पुस्तक के चतुर्थ संस्करण की पहली पुस्तक पुनः मुझे भेजी। संभवतः वे गर्व पूर्ण प्रसन्नता का अनभुव कर रहे होंगे कि उनकी पुस्तक के तीन संस्करण तो अत्यल्प समय में समाप्त हो गए और यह बात वे मुझे बताना चाहते थे। किंतु मेरा कहना है कि माननीय विद्वान की यह प्रसन्नता मिथ्यात्व के प्रचार की सफलता से उत्पन्न प्रसन्नता है। इस पंचम काल का यह प्रभाव स्पष्ट है कि धर्म के समीचीन स्वरूप में रूचि रखते हुए उसे ग्रहण करने वाले लोग धीर-धीरे कम होते जायेंगे । भट्टारकों की उत्पत्ति का इतिहास बताया है कि दिगम्बर साधु जब शिथिलाचार से ग्रसित होने लगे तो प्रारंभ में आहार के लिए चटाई से गुह्यांग ढकने लगे फिर लंगोट ग्रहण की और फिर धीरे-धीरे वस्त्र पहनने लगे और उसके आगे परिग्रह वाहन नौकर चाकर, मठ, छत्र आदि आदि और इस प्रकार अपरिग्रहत्व एवं संयम का स्थान परिग्रह और सत्ता ने ले लिया। परिग्रह से लिप्त होने के बाद भी साधु के चिन्ह पिछी रखकर अपना साधुवत सत्कार कराने लगे और अपने लिए जगत् गुरु महास्वामी जैसे संबोधनों का प्रयोग कराने लगे। जैन धर्म के दिगम्बर साधु के स्वरूप एवं आचार संहिता पर श्वेताम्बर परंपरा के बाद यह भट्टारक परंपरा के रूप में दूसरा आक्रमण हुआ है। तथापि जिनवाणी का यह उदघोष है कि दि. जैन साधुचर्या को दोष लगाने वाले दस नहीं सौ भट्टारक भी हो जायें और उनका छलपूर्ण समर्थन करने वाले एक नहीं सौ नीरज जी भी प्रचार करें तो भी अभी अठारह हजार वर्ष से अधिक के लम्बे काल तक इस भारत भूमि पर आगमानुकूल निर्दोष चर्या का पालन करने वाले मुनि, आर्यिका और उनके उपासक श्रावक एवं श्राविका का अस्तित्त्व बना रहेगा। यह खेद की बात है कि माननीय नीरज जी निर्विवाद महान आचार्य श्री को भ्रष्ट मुनियों के द्वारा स्थापित भट्टारक सम्प्रदाय का समर्थक बताकर उनके उज्जवल व्यक्तित्व को लांच्छित करने का दुष्प्रयास कर रहे हैं और उनका भारी अवर्णवाद कर रहे हैं। आचार्य शांतिसागर जी महाराज किसी भी परिस्थिति में 'आगम विरूद्ध भट्टारक परंपरा का स्वप्न में भी समर्थन नहीं कर सकते थे और न कभी उन्होंने ऐसा किया है। इसके विपरीत भट्टारकों के आरंभ परिग्रह युक्त रूप का उन्होंने अन्यत्र स्पष्ट विरोध किया है। प्रस्तावना के रूप में लिखे गए आगे के पृष्ठ में मेरे और बैनाड़ा जी दोनों पर आक्षेप किए गए हैं, जिन्हें हम आशीर्वाद के रूप नवम्बर 2004 जिनभाषित 17 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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