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________________ अनर्गल प्रलाप पुनः पुनः मूलचन्द्र लुहाड़िया दक्षिण भारत जैन सभा के द्वारा सन् 1912 में प्रकाशित । प्रेमीजी की पुस्तक में मूल बिंदु यह उठाया गया है कि दि. जैन एवं प्रचारित स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी की पुस्तक 'भट्टारक' का | चरणानुयोग आगम के अनुसार भट्टारक का कौनसा स्थान है हिंदी अनुवाद प्रकाशित कर वितरित कर विद्वानों एवं सुधी पाठकों इसका स्पष्टीकरण होना चाहिए। दि. जैन चरणानुयोग के अनुसार की भट्टारक संप्रदाय के बारे में सम्मति आमंत्रित करने जैसे | चारित्र के दो भेद हैं। सकल और विकल, मुनि और श्रावक। मुनि विशद्ध साहित्यिक कार्य में विद्वानश्री नीरज जी को पता नहीं कैसे | दिगम्बर होते हैं। कपड़े वाले श्रावक होते हैं। उनके ग्यारह दर्जे अनर्थ की आशंका हुई और उन्होंने सर्वथा निराधार एवं मिथ्या | या प्रतिमाएँ होती है। भट्टारक दोनों में से क्या हैं? यदि दोषारोपण के रूप में अनर्गल प्रलाप प्रारंभ किया। मैंने विनय | भट्टारक मुनि नहीं हैं तो वे श्रावक होने चाहिए। श्रावक हैं तो पूर्वक उनके आरोपों का उत्तर देते हुए एवं विषय पर प्रामाणिक | उनकी कौन सी प्रतिमा है? मुनि या क्षुल्लक ऐलक नहीं है तो प्रकाश डालते हुए लेख लिखा । माननीय श्री प्रेमी जी ने भट्टारक | हाथ में पिच्छी कैसे है? दीक्षा के समय मुनि बाद में कपड़े संप्रदाय में धीरे-धीरे आए दोषों की चर्चा करने के पश्चात् अपनी परिग्रह, सुविधा भोगी जीवन यह कैसा विरोधाभास है? हमने पुस्तक के अंत में भट्टारकों के अस्तित्त्व को उपयोगी बनाने के | भट्टारकों का विरोध द्वेष बुद्धि से कभी नहीं किया। उनकी लिए उनके स्वरूप परविर्तन की आवश्यकता प्रतिपादित की और | दोषपूर्ण आगम विरूद्ध जीवन शैली का विरोध हम नहीं कर रहे, मैंने भी भट्टारकों के वर्तमान विकृत एवं मिथ्याभेष के स्थान पर | जिनवाणी कर रही है। मूलाचार में स्वयं पतित मयूर पंखों से आगम के अनुसार उनका चारित्रिक स्वरूप निर्धारण किए जाने की | निर्मित पिच्छी को योगियों का चिन्ह या लिंग बताया गया है। भावना प्रकट की थी। किंतु श्री नीरज जी ने अत्यंत चतुरता से | स्वयं पतित पिच्छानां लिंग चिन्ह च योगिनाम्। भावपाहुड़ की लेख के प्रभावी अंशों, ऐतिहासिक तथ्यों एवं आगमिक सिद्धांतों | टीका में 'जिन लिंग नग्न रूप महन' मुद्रा मयूरपिच्छि कमंडलु की अनदेखी करते हुए दि. जैन यत्याचार संस्कृति के पवित्र | सहित निर्मल कथ्यते' के अनुसार मयूर पिच्छी सहित नग्न रूप वीतराग स्वरूप को दयनीय रूप से विकृत बना देने वाले एवं | ही जिन लिंग है । आचार्य कुंदकुंद ने स्पष्ट घोषणा की है कि मुनि, आरंभ परिग्रह से युक्त चर्या और भेष धारण करने वाले भट्टारकों | आर्यिका एवं उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक ऐलक) जैन दर्शन में ये के अंधसमर्थन में एक पुस्तक लिख डाली है। वस्तुत: आगम के तीन ही लिंग हैं। कोई चौथा लिंग जैन दर्शन में नहीं है। इन अध्येता विद्वानश्री नीरज जीआगम ज्ञानके आलोक में अपनी अंतरात्मा | पिच्छी धारी भट्टारकों का उपरोक्त तीन लिंगों में से कौन सा लिंग से इस दिगम्बर जैन आचार संहिता के विरूद्ध मिथ्या भेष और | है? आपका उत्तर निश्चित ही नकारात्मक होगा। जैन दर्शन में मिथ्याचर्या का समर्थन और उसमें आगमानुकूल सुधार के परामर्श | भगवत् स्वरूप आचार्य कुंदकुंद महाराज के द्वारा स्थापित आचार काअंध विरोध नहीं कर सकते थे। किंतु वे अवश्य ही पक्ष | व्यवस्था के विरूद्ध वस्त्रधारी मठाधीश भट्टारकों का पिच्छी व्यामोह तथा तुच्छ स्वार्थ साधना से प्रेरित होकर ही कदाचित इस | रखना दि. जैन आगम के पूर्णत: विरूद्ध है और मिथ्यात्व का रूप आगम विरूद्ध भेष के समर्थन में अग्रसर हुए हैं। है। वस्तुतः भट्टारकों के इसविकृत एवं आगम विरूद्ध भेष एवं इस पुस्तक को पढ़कर अत्यंत दुखद आश्चर्य हुआ। श्री | चर्या का समर्थन करना दि. जैन आचार संहिता के पूर्णत: विपरीत नीरज जी ने अपनी साहित्यिक चतुराई का भारी दुरूपयोग करते | है। प्रेमी जी का और हमारा भी यह विनम्र सुझाव है कि भट्टारकों हुए पुस्तक के नामकरण में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर | को अपनी चर्या आगम के अनुकूल संकल्प पूर्वक किसी प्रतिमा जी महाराज को जोड़ा है। पाठकों को धोखे में डालकर और | के व्रत ग्रहण कर बना लेनी चाहिए और पदानुकूल आदरसत्कार आचार्य शांतिसागर जी महाराज के नाम से प्रभावित कर पूरी | प्राप्त कर दि. जैन धर्म की सच्ची प्रभावना में सहयोगी बनना पुस्तक में लेखक विद्वान ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा का भरपूर | चाहिए। यह तर्क कि, गत 500-600 वर्षों से भट्टारक पिच्छी दुरूपयोग पाठक को व्यक्तिगत आरोपों एवं निराधार मिथ्या प्ररूपणाओं | रखते आए हैं इसलिए वे पिच्छी के अधिकारी हो गए हैं, वस्तुतः के शब्द जाल में उलझाकर मूल विषय वस्तु से दूर रखने में | कुतर्क है। पहले भट्टारक आरंभ परिग्रह रहित नग्न दिगम्बर होते किया है। पाठक के सामने भट्टारकों के विरोध किए जाने का | थे। तब पिच्छी रखने के अधिकारी थे। किंतु जब आरंभ परिग्रह ऐसा जबर्दस्त हव्वा खड़ा किया गया है कि उनके मन में भट्टारकों | वस्त्र वाहन रखने लगे तब यदि उनमें दि. जैन धर्म और जिनागम के प्रति सहज सहानुभूति उत्पन्न हो सके और वे पाठक ऐसे | के प्रति श्रद्धा शेष है तो, जिन लिंग के अभाव में लिंग सूचक भ्रमित हो जाएँ कि मूल विषय उनके ध्यान से खिसक जाये।। पिच्छी भी छोड़ देनी चाहिए। जीवन में अनेक वर्षों से किए जा 16 नवम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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