________________
समाधान- श्रावकों के लिए श्रावकाचारों में इस संबंध में दो प्रकार के उद्धरण मिलते हैं, कुछ के अनुसार तो व्रती श्रावक को आजीवन पत्तों वाले शाक नहीं खाना चाहिए जबकि कुछ ग्रन्थों में वर्षा ऋतु में तो इनको बिल्कुल अभक्ष कहा है। कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं
1. श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है
प्रावृषि द्विदलं त्याज्यं सकलं च पुरातनम् । प्रायशः शाकपत्रं च नाहरेत्सूक्ष्मजन्तुमत् ॥ 22 ॥ अर्थ - वर्षाकाल में सम्पूर्ण द्विदल धान्य मूँग, चना, उड़द, अरहर आदि तथा पुराना धान्य नहीं खाना चाहिए। क्योंकि वर्षा समय में बहुधा करके इनमें जीव पैदा हो जाते हैं । इसी तरह पत्तों वाला शाक भी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि इसमें भी त्रस जीव पैदा हो जाते हैं।
2. श्री प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है
पत्रशाकं त्यजेद्धीमान पुष्पं कीट समन्वितम् । ज्ञात्वा पुण्याय जिह्वादिदमनाया शुभप्रदम् ॥ 102 ॥
अर्थ - बुद्धिमानों को पुण्य सम्पादित करने, जिह्वा आदि इन्द्रियों को दमन करने के लिए पाप उत्पन्न करने वाले पत्तों वाले शाक व कीड़ों से भरे हुए पुष्प आदि सबको त्याग कर देना चाहिए ।
3. श्री सागारधर्मामृत में इस प्रकार कहा है
-
वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकं च नहरेत् ॥ 5/18 अर्थ- वर्षाऋतु में पत्र - शाक नहीं खाना चाहिए । 4. श्रावकाचार संग्रह - भाग 3, लाटीसंहिता पृष्ठ-5, पर इस प्रकार कहा है। अर्थ- पत्ते वाली शाक भाजी कभी न खायें।
5. श्रावकाचार संग्रह, भाग 3, उमास्वामी श्रावकाचार पृष्ठ178 पर इस प्रकार कहा है : अर्थ- जामुन, पत्ते के शाक, सुआ, पालक तथा कोपलें अभक्ष्य
1
6. श्रावकाचार संग्रह भाग 3, पूज्यपाद श्रावकाचार पृष्ठ194 पर इस प्रकार कहा है । अर्थ - "पत्तों के शाक अभक्ष्य हैं इनको छोड़ना चाहिए ।"
7. श्रावकाचार संग्रह भाग 3, व्रतोद्योतन श्रावकाचार, पृष्ठ 231 पर इस प्रकार कहा है। अर्थ - पत्ते के शाक कभी न खायें।
-
8. श्रावकाचार संग्रह भाग 3, पुरुषार्थानुशासन श्रावकाचार, पृष्ठ - 503, पर इस प्रकार कहा है : अर्थ "सभी प्रकार
Jain Education International
के पत्तों के शाक कभी न खायें। "
9. रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका पं. सदासुखदास जी, पृष्ठ131 पर कहा है । अर्थ- वनस्पति में अनेक त्रस जीवनि का संसर्ग उत्पत्ति जान जे जिनेन्द्र धर्म धारण करि पापन ते भयभीत हैं ते समस्त ही हरितकाय का त्याग करो, जिव्हा इन्द्रिय को वश करो। अर जिनका समस्त हरितकाय के त्याग करने का सामर्थ्य नाहिं है, ते कंदमूलादिक अनन्तकाय को यावत् जीवन त्याग करो। अर जे पंचउदम्बरादिक प्रकट सजीवनि करि भरया है, ऐसा फल - पुष्प, शाकपत्रादिकनकूं छांड़िकरिकें त्रस घाति कर रहित दीखे ऐसी तरकारी, फलादिक दश- बीस कूं अपने परिणामिन के योग्य जानि नियम करो । हरित काय प्रमाणीक का नियम करें ताकें करोड़ों अभक्ष लैं हैं, तिसमें पत्र जाति भक्षण योग्य नाहिं ।"
10. किशनसिंह श्रावकाचार पृष्ठ
16 पर कहा है
शाक पत्र सब निंद बखानि, कुंथादिक करि भरया जानि । मांस त्यजनि व्रत राखो चहे, तो इन सबको कबहूँ न गहे । अर्थ - पत्ते वाली सब शाक निन्दनीय कही गई हैं, वे चींटी आदिक जीवों से भरे हुए जानना चाहिए। यदि माँस त्याग व्रत की रक्षा चाहते हो तो इन सबको कभी ग्रहण न करो।
इसके अलावा अन्य भी बहुत से प्रमाण हैं। इस समाधान के पाठकों से निवेदन है कि वे पत्ती वाले शाक, यदि उचित समझें तो आजीवन त्याग करें अथवा वर्षा ऋतु के चार माह तो त्याग करें ही करें। वर्तमान में कुछ मुनिराज पत्ती वाले शाक आहार में लेते हैं । परन्तु उपरोक्त सभी प्रमाणों द्वारा पत्ती वाले शाक खाने में त्रस जीवों की हिंसा का दोष बताते हुए जब श्रावकों को भी उनके खाने का निषेध किया है, तब फिर अहिंसा महाव्रत के धारी मुनिराजों के लिए तो पत्ती वाले शाक नितान्त अभक्ष हैं । बुद्धिमान श्रावक को, मुनि के लिए दिए जाने वाले आहार में, पत्ती वाले शाक कदापि नहीं बनाने चाहिए।
जिज्ञासा - रुद्र कौन होते हैं और क्या ये भी निकट भव्य होते हैं?
समाधान - श्री सिद्धान्तसार दीपक अधिकार - 9, श्लोक नं. 263-272 में इस प्रकार कहा है- "रौद्र परिणामी ये सभी रूद्र जैनेन्द्री दीक्षा को नष्ट कर देने वाले मुनि आर्यिकाओं के पुत्र हैं। ये सभी दैगम्बरी दीक्षा धारण करके विद्यानुवाद नामक दशवें पूर्व को पढ़ते हैं, इससे इन्हें विद्याओं
For Private & Personal Use Only
सितम्बर 2004 जिनभाषित 25 www.jainelibrary.org