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जिज्ञासा- समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
जिज्ञासा - तीसरे व चौथे स्वर्ग के देवों के स्पर्श से | मध्यम आकार वाले 50 x 25 x 371/2 योजन होते हैं और प्रवीचार कहा है तो क्या इससे ऊपर के स्वर्ग के देव अपनी | जघन्य आकार वाले 25 योजन लम्बे, 121/2 योजन चौड़े देवियों को स्पर्श नहीं करते हैं? क्या वे अपनी देवियों के | और पौने 19 योजन ऊँचे होते हैं। इन सब जिनालयों की गीत नहीं सुनते हैं?
नींव जमीन में आधे-आधे योजन होती है। भद्रशाल वन, समाधान- भगवान ऋषभदेव अपने पिछले चौथे भव
नन्दनवन, नन्दीश्वरदीप और स्वर्ग के विमानों में उत्कृष्ट में अच्युत स्वर्ग के इन्द्र थे। उनका वर्णन करते हुए आदिपुराण
आकार वाले जिनालय हैं। सौमनसवन, रूचिकगिरी, भाग-1, पृष्ठ 225 पर इस प्रकार कहा है- "उस अच्युत
कुण्डलगिरी, वक्षारगिरी, इष्वाकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत स्वर्ग के इन्द्र की आठ महादेवी तथा 63 बल्लभादेवी थीं।
और कुलाचलों पर मध्यम आकार वाले जिनालय हैं। पाण्डुक एक-एक महादेवी अढ़ाईसौ-अढ़ाईसौ अन्य दूसरी देवियों
वन में जघन्य आकार वाले जिनालय हैं। विजयार्ध पर्वत, से घिरी रहती थीं। इस प्रकार सब मिलाकर 2071 देवी
जम्बूद्वीप तथा शाल्मली वृक्ष पर जिनालयों की लम्बाई थीं। इन देवियों का स्मरण करने मात्र से ही उस अच्युत
एक कोश प्रमाण है। इसके अतिरिक्त भवनवासी देवों के इन्द्र की काम व्यथा नष्ट हो जाती थी। वह इन्द्र उन देवियों
भवनों में तथा व्यंतर एवं ज्योतिषी देवों के निवास स्थानों के कोमल हाथों के स्पर्श से, मुखकमल देखने से और
पर अलग-अलग आकार के जिनालय हैं। इनका विशेष मानसिक संभोग से अत्यंत तृप्ति को प्राप्त होता था।... जिनके
वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ से जानना चाहिए। वेष बहुत ही सुंदर हैं, जो उत्तम आभूषण एवं सुंगधित | जिज्ञासा - असिद्धत्व भाव औदयिक कहा गया है तो मालाओं से सहित हैं, जो मधुर शब्दों से गा रही हैं, ऐसी | यह किन कर्मों के उदय से होता है? देवांगनाएं उस अच्युत इन्द्र को बड़ा आनन्द प्राप्त करा रही
समाधान - श्री राजवार्तिक अध्याय-2, सूत्र-6 की थी। जिनके मुख कमल के समान सुंदर हैं ऐसी देवांगनाएं अपने मनोहर चरणों के गमन, भोंहों के विकार, सुंदर दोनों
टीका में इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार कहा गया है
"अनादि कर्मबन्धसन्तानपरतन्त्रस्यात्मनः कर्मोदय नेत्रों के कटाक्ष, अंगोपांगों की लचक, सुन्दर हास्य, स्पष्ट
सामान्ये सति असिद्धत्पर्यायो भवतीत्यौदयिकः। स और कोमल हाव आदि अनेक भावों के द्वारा उस अच्युत
पुनर्मिथ्यादृष्ट यादिषु सूक्ष्मसाम्परायिकान्तेषु इन्द्र का मन ग्रहण करती रहती थीं। वह अच्युत इन्द्र भी
कष्टि कोदयापेक्षः, शान्तक्षीणकषाययोः उनके नेत्रों के कटाक्षों से घायल हए अपने हृदय को उन्हीं
सप्तकर्मोदयापेक्षः सयोगिकेवल्ययोगि केवलिनोर के कोमल हाथों के स्पर्श से धैर्य बंधाता था आदि।" ।
घातिकर्मोदयापेक्षः। उक्त प्रकरण से यह स्पष्ट है कि यद्यपि वह अच्युत
अर्थ- अनादिकर्मबंध परम्परा से परतन्त्र आत्मा के इन्द्र अपनी देवियों को स्पर्श करता था, उनका रूप देखता
कर्म उदय सामान्य होने पर असिद्धत्व पर्याय होती है, जो था, उनके गीत आदि सुनता था परन्तु इस सबसे उसकी
औदयिक है। वह पर्याय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर काम-वासना का कोई संबंध नहीं था। ये तो उसके भोगोपभोग
सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान तक आठों कर्मों के उदय अपेक्षा के साधन थे। उसकी कामवासना तो स्मरण मात्र से ही शांत
कही गई है। मोहनीय कर्म का अभाव होने से उपशांत हो जाती थी।
कषाय एवं क्षीणकषाय गुणस्थानों में शेष सात कर्मों की जिज्ञासा - क्या सभी अकृत्रिम जिनालय समान आकार | अपेक्षा कही गई है तथा सयोगकेवली एवं अयोगकेवली वाले ही होते हैं?
गुणस्थान में अघातिया कर्मों की अपेक्षा कही गई है।" इस समाधान - आगम में जिनालय तीन आकार वाले | प्रकार असिद्धत्व भाव को औदयिक समझना चाहिए। कहे गये हैं। उनमें उत्कृष्ट आकार वाले जिनालय 100 | जिज्ञासा - वर्षा ऋतु में पत्ते या पत्ती वाले शाक खाना योजन लम्बे, 50 योजन चौड़े और 75 योजन ऊँचे होते हैं। | चाहिए या नहीं? 24 सितम्बर 2004 जिनभाषित
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